विशेष : अलग झारखंड राज्य को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा और सांसद राजकिशोर महतो के बीच ऐतिहासिक वार्ता।
Date: 07/12/2020
झारखंड के मसीहा बिनोद बिहारी महतो के ज्येष्ठ पुत्र पूर्व सांसद राजकिशोर महतो झारखंड के नायक थे। उनके निधन से पूरे झारखंड में शोक की लहर है। वे अलग झारखंड राज्य के लिये सिर्फ सडकों पर हीं आंदोलन का नेतृत्व नहीं किये बल्कि राष्ट्रपति भवन में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा को यह समझाने में सफल रहे कि अलग राज्य के लिये झारखंड आंदोलन कोई समस्या नहीं बल्कि समस्याओं का समाधान है।
झारखंड आंदोलन की दर्जनों कहानियाँ अभी तक पूर्ण रूप से सामने नहीं आ सकी है। यह एक ऐतिहासिक घटना है कि किसी राष्ट्रपति ने खुद किसी राजनीतिक दल को बुलाकर झारखंड राज्य की मांग पर चर्चा की। केन्द्र सरकार और राज्य सरकार आंदोलन की दिशा को बदलते रहे। इसमें झारखंड आंदोलन के नेताओं की भूमिका भी कम नहीं रही। ऐसे में झारखंड मुक्ति मोर्चा दो भागों में बंट गया और झामुमो सोरेन और झामुमो मार्डी। झामुमो मार्डी हीं एक ऐसी पार्टी थी जो शुरू से लेकर अंत किसी भी तरह के परिषद के खिलाफ थी और एक हीं मांग थी सिर्फ अलग राज्य। मार्डी गुट के तत्कालीन सांसद और नेता राजकिशोर महतो ने आंदोलन की लड़ाई के एक हिस्से को अपनी लेखन से सामने लाया है।
झारखंड आंदोलन के प्रति नजरिया बदलने की जरूरत -
भारत वर्ष के महामहिम राष्ट्रपति डॉ शंकर दयाल शर्मा से हमारी वार्ता होने के पूर्व भारत के गृहमंत्री मनानीय एस.बी चह्वान से हमारी वार्ता 24 अगस्त 1992 तथा 11 सिसम्बर 1992 को हुआ था। वार्ता का विषय था झारखंडी की समस्या। और वार्ता में गृह मंत्रालय की ओर से बुलाया गया था झारखंड मुक्ति मोर्चा(सोरेन) और झारखंड मुक्ति मोर्चा(मार्डी) के नेताओं को। इसके अलावा अन्य झारखंड पार्टी
सहित अन्य झारखंड नामधारी पार्टियों को। फिर बुलाया गया था अन्य दलो को – जनता दल, कांग्रेस आदि। 24 अगस्त को हमारी वार्ता हुई थी नई दिल्ली में। वार्ता के अलावा सर्वदलीय बैठक भी हुई। हमारी ओर से यानि झामुमो मार्डी की ओर से मैं और सिंहभूम पश्चिम से पार्टी अध्यक्ष और पार्टी सांसद कृष्णा मार्डी ने हिस्सा लिया था। उस सर्वदलिय बैठक में घूमा फिरा के एक बात कही जा रही
थी कि झारखंड आंदोलन एक समस्या है और इस समस्या को दूर किया जाना चाहिये। यह भी कहा जाता रहा कि झारखंड आंदोलन सिर्फ 30 प्रतिशत आदिवासियों का आंदोलन है। अत: आदिवासियों के आंदोलन की समस्याओं को दूर कर दिया जाय तो इस आंदोलन का समापन हो सकता है और विकास की प्रक्रिया तेज हो सकती है।
इस बैठक में झामुमो(सोरेन) की तरफ से उसके सभी सांसद शैलेन्द्र महतो, सूरज मंडल, शिबू सोरेन और साइमन मरांडी ने हिस्सा लिया। फिर झारखंड पार्टी की तरफ से श्री राम दयाल मुंडा, श्री एन.ई.होरो और आजसू की ओर से बेसरा ने हिस्सा लिया था। मैंने स्पष्ट रूप से यह बात रखी थी कि झारखंड अलग राज्य का आंदोलन कोई समस्या नहीं है। इसे समस्या के रूप में देखना ही गलत होगा। वास्तव में यह तो समस्या का निदान है। सभी को इस नजरीये को बदलना होगा। झारखंड आंदोलन समस्याओं से उपजा उसका निदान है। अत: अपनी दृष्टिकोण को हमने वहां उस बैठक में स्पष्ट रूप से रख दिया था कि झारखंड अलग राज्य का निर्माण कियाजाये तभी जाकर उस क्षेत्र में समस्या का समाधान हो सकेगी।
झारखंड आंदोलन को कमजोर करने का षडयंत्र -
हमारी बैठके पहले तो अलग अलग दलों को अलग अलग बुलाकर की गई। फिर एक बार एक साथ। जाहिर था ऐसा क्यों किया गया था। ज्यादातर दल अब ढीले पड़ने लगे थे। सभी एक प्रकार से नीतिगत रूप से तैयार हो गये थे कि अगर आदिवासियों के लिए विशेष व्यवस्था की जायेगी तो झारखंड आंदोलन समाप्त हो जायेगा। पर मैं इसके घोर विरोध में था। इसके लिये मैंने प्रयाप्त कारण भी रखे
थे। पर अन्दर ही अन्दर एक षडयंत्र चल रहा था यह मैंने पहले हीं भांप लिया था। महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता यानि झामुमो(मार्डी) की बातचीत का ब्यौरा देने से पहले हम उस वार्ता की चर्ची करना आवश्यक समझते हैं जो दिनांक 11 सितंबर 1992, करीब 3 सप्ताह बाद पुन: माननीय गृहमंत्री जी के साथ मंत्रालय में बातचीत हुई।
जब मुख्यमंत्री लालू जी ने मुझे फोन किया
अलग अलग दलों की अलग अलग बैठके हुई। उस दिन 10 सितम्बर को हम रांची से हवाई जहाज से दिल्ली गये थे। पटना से बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और विपक्ष के नेता (कांग्रेस) जगन्नाथ मिश्र उसी जहाज पर था। मुख्यमंत्री यादव ने मुझे और कृष्णा मार्डी को बगल में बैठने को कहे लेकिन हमलोग पीछे के सीट पर बैठ गये। हमारे साथ पटना से आ रहे झामुमो मार्डी के विधायक सुमरित
मंडल भी थे। जहाज में श्री लालू प्रसाद यादव और श्री जगन्नाथ मिश्रा दोनो रास्ते भर यही बात करते रहे कि झारखंड अलग राज्य का विरोध करना है। इस मुद्दे पर दोनो ही एक थे। हालांकि जनता दल नेता लालू प्रसाद ने राजनीति में श्री मिश्रा को पटखनी देकर ही मुख्यमंत्री बने थे।
उनकी बातें हमें भी सुनाई देती रही। हमलोग भी वार्ता कर रहे थे अलग राज्य को लेकर। दिल्ली हवाई अड्डे पर दुआ सलाम करते हम
लालू प्रसाद से अलग हो गये। रात में 9 बजे के आस पास लालू जी का फोन आया। इधर उधर की बातें करने के पश्चात उन्होंने पूछा कि कल की वार्ता में आप क्या कहने वाले हैं। उन्हें शायद पता था कि वार्ता एक साथ नहीं अलग अलग होने वाली है। उन्होंने कहा कि आप तो 26 जिले झारखंड के समर्थक हैं। इसलिए बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के हिस्से को मिलाकर झारखंड की
मांग करना उचिता होगा। मुझे यह बात समझ में नहीं आई कि लालू जी इस बात पर जोर क्यों दे रहे हैं जबकि वे जानते हैं कि मार्डी गुट की मांग 26 जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य की है। मेरे मन में यह भी सवाल उठने लग कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार बिहार के ही झारखंड क्षेत्र को अलग कर कुछ योजना बना रही है। लालू प्रसाद यही प्रचारित कर रहे थे कि मार्डी गुट की मांग सही है। क्योंकि
वे समझते थे कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी। 26 जिले का झारखंड असंभव। सभी राज्यों का मामला था। क्या हम नहीं जानते थे कि क्या चार राज्यों के हिस्सों को अलग करना किसी भी सरकार के लिये कितना कठिन था। मीडिया के बन्धु तथा विरोधी दलों खासकर झामुमो सोरेन के लोग हमारी मांग को अव्यवहारिक तथा लालूजी के अप्रत्य़क्ष रुप से समर्थन लेते थे।
आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेना क्या किसी गुप्त समझौते का हिस्सा था -
एक और बड़ी विसंगति की बात थी। जब झारखंड आंदोलनकारी एक जुट थे और आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम मार्च 1992 में किया गया था, जब पूरा देश इस आर्थिक नाकेबंदी से प्रभावित हो गया था, उस समय भी गृह मंत्री एस वी चव्हान ने हमारे नेताओं को वार्ता करने के लिये दिल्ली बुलाया था। आखिर क्या बातें हुई थी इसका खुलास पार्टी के नेताओं ने नहीं किया था। किस कारण से आर्थिक नाकेबंदी का कार्यक्रम दस दिनों के बाद अचानक वापस ले लिया गया। सरकार का भी कोई व्यक्तव्य इस संबंध में नहीं था कि केन्द्र सरकार झारखंड राज्य देने के लिये सहमत है या नहीं।ऐसे में सवाल यह भी था कि जब झामुमो दो धड़ो में बंट चुका था तब ऐसे में कमजोर लोगों के साथ अलग अलग वार्ता क्यों ? क्या केन्द्र सरकार और हमारे नेता शिबू सोरेन और सूरज मंडल के बीच आर्थिक नाकेबंदी वापस करने से पहले हीं कोई गुप्त समझौता हो चुका था? इतना निश्चित था कि अलग राज्य की शर्त पर झारखंड आंदोलन को वापस लेने का फैसला नहीं किया गया था। क्योंकि ऐसी स्थिति में इस बात को राज नहीं रखा जाता, सभी लोग खुलासा कर देते। क्षेत्र की जनता की यही मांग थी।
पर वार्ता के निर्णायक शर्तों को गोपनीय रखने का अर्थ ही था कि किन्हीं अन्य शर्तों पर आंदोलन को वापस लिया गया है। शर्त क्या थी इसका अंदाजा मैं लगाने की कोशिश कर रहा था। कुछ रोशनी पड़ने लगी थी, लालूजी के साथ फोन पर हुई बातचीत से। लालूजी नहीं चाहते थे कि सिर्फ बिहार को तोड़कर राज्य बने। इसलिये चार राज्यों के हिस्से को मिलाकर झारखंड की बात करते थे और हमसे
करवाना चाहते थे। लेकिन शिबू सोरेन आंदोलनकारी थे। वे चुप क्यों थे। क्या उन्हें कुछ और चाहिये था। मामला उलझाकर रखा गया था ताकि एक पूर्व निश्चित योजना के तहत एक विकल्प की और सबको ले जाया जाये और सबकी सहमति प्राप्त कर ली जाये। और वैसी हीं परिस्थिति पैदा की जा रही थी।
तत्कालीन प्रधानमंत्री राव ने झारखंड राज्य की मांग को ठुकरा दिया -
11 सितंबर 1992 की वार्ता महत्वपूर्ण थी। हमसे बातचीत के बाद लालू जी को बुलाया गया था। सुबह अखबार में पढा कि लालूजी ने कहा था कि “बिहार का विभाजन मेरी लाश पर होगा”। जबकि पूणे
में गृहमंत्री ने व्यक्तव्य दिया था कि झारखंड की समस्या का समाधान अलग राज्य से ही संभव है। यही पर बात खत्म हो गई ऐसी बात नहीं है। चार दिनों के बाद माननीय प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव जी का बयान आया कि अभी झारखंड राज्य जैसी बनाने की कोई बात उनके दिमाग में नहीं है। आखिर गृहमंत्री का बयान के बाद प्रधानमंत्री का बयान क्यों आया। फिर सब कुछ रूक सा गया। कुछ दिनों
बाद झारखंड राज्य के मामले को आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय के पास भेज दिया गया जिसके मंत्री राजेश पायलट थे। गृह विभाग से विषय को हटा को लिया गया। यह बात साफ हो चुकी थी कि अब अलग राज्य नहीं बनेगा। आंतरिक सुरक्षा मंत्रालय का विषय आंतरिक सुरक्षा, शांति व्यवस्था कायम करना था। कुछ दिनो बाद श्री चह्नान भी गृह मंत्रालय से हट गये थे।
महत्वपूर्ण बात यह थी कि शिबू सोरेन ने 11 जुलाई 1992 को लालू प्रसाद की सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। इसी कारण मार्डी गुट का जन्म हुआ और मार्डी गुट के दो सांसद एवं नौ विधायकों ने लालू यादव को समर्थन जारी रखा। सवाल यह भी था कि प्रधानमंत्री राव ने गृहमंत्री के बयान पर ऐसा क्यों कहा कि अभी ऐसा कोई विचार उनके मन में नहीं था।
राष्ट्रपति भवन की नजर थी मार्डी गुट के आंदोलन पर –
महामहिम राष्ट्रपति से हमारी वार्ता क्यों हुई, इस बात की पृष्टभूमि गृहमंत्री के साथ वार्ता में तैयार हो गई थी। आखिर राजनैतिक वार्ता करने का काम तो राजनीतिज्ञों, विधायकों-सांसदो एवं मंत्रियों का काम है राष्ट्रपति का नहीं। ऐसी मेरी समझ है। उन्होंने स्वयं हमें बुलाया था और वार्ता की थी। आखिर झारखंड के इतने लंबे इतिहास में भारत के किसी राष्ट्रपति ने उसके किसी भी आंदोलनकारी को पहले नहीं
बुलाया था। ऐसे में मेरे मन में यह सवाल उठ रहा था कि हमें क्यों बुलाया गया था ? भारतवर्ष के अन्दर ब्रिटिश शासन काल से लेकर आजादी के बाद 1992 तक कई नये राज्यों का गठन किया गया था। भारत वर्ष की स्वतंत्रता के कुछ ही वर्षों बाद 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग बनाया गया था और 1955 में इसकी रिपोर्ट आयोग द्वारा केन्द्र सरकार को सौंपी गई थी। 1956 में ‘दी रीआरगेनाइजेशन एक्ट 1956’ पार्लियामेंट से पारित किया गया जिसमें कई नई राज्यों के गठन का प्रावधान था। साथ ही कई राज्यों की सीमाओं में फेर-बदल के लिए कानून बनाये गये। आश्चर्य की बात है कि उसमें झारखंड अलग राज्य बनाने की सिफारिश आयोग द्बार नहीं की गई थी। सिर्फ पश्चिम बंगाल के पुरूलिया सबडीवीजन को तत्कालीन बंगाल में बिहार से अलगकर शामिल कर दिया गया।
राजघाट पर धरना देने की योजना -
5 मई 1993 दिल्ली शहर के रिंग रोड पर स्थित महात्मा गांधी यानि मोहनदास करमचंद गांधी, यह एक ऐसे महापुरूष का नाम है जिसकें संबंध में कुछ कहना हम जैसे लोगों के लिये बस की बात नहीं है। भारतवर्ष के दलित वर्ग के उत्थान की बात जब भी उठती है, हिन्दुस्तान के ब्राह्मवादी समाज व्यवस्था के छुआ-छुत, ऊंच-नीच की बात जब कही जाती है, महात्मा गांधी की याद आ जाती है। निराशा हताशा में डूबे हुए अधनंगे, भूखे, प्रताडित लोग ‘हरिजन बन जाते है, इनके स्पश मात्र से। सुदूर जंगलो में सभ्य समाज तथा कथित सभ्य समाज से दूर, भारत की मुख्यधारा से परे, उपेक्षित लोग जिनकी मूर्तियां तक म्यूजियमों में नमूने के तौर पर रखी गई, वो जनजातियां भारतवर्ष के आदिवासी कहे जाने लगे, गांधीजी के कारण। बड़ी आशा और उमंग से वे लोग इनकी ओर ताकते हैं जो स्वयं पर हो रहे अनाचार, अत्याचार, शोषण और जुल्म सहते सहते थक चुके होते हैं। निराशा एवं हताशा जिनकी नसीब में लिख जाती है वे लोग इनकी शरण में आते हैं। अहिंसा का देवदूत।
तेज धूप के बावजूद राजघाट-धरने में मार्डी गुटे के सभी लोग जुटे -
झारखंड की जनता भी थक चुकी थी। हम भी निराश हो चले थे। बड़ी मुश्किल से हम यह निर्णय ले पाये थे 5 मई 1993 को राजघाट पर महात्मा गांधी की समाधि पर एक दिवसीय धरने का कार्यक्रम रखेगें। यह धरना निराहार, यहां तक कि पानी भी नहीं पियेंगे, इसी संकल्प के साथ हमारी पार्टी ने झारखंड मुक्ति मोर्चा (मार्डी) गुट ने यह निर्णय लिया था। हम दो सांसद श्री कृष्णा मार्डी और मैं था।
हमारे साथ नौ विधायक श्री हबक गुड़ीया, श्री बहादुर उरांव, श्री हाडीराम सरदार, श्री अर्जुन राम, श्री टेकलाल महतो, श्री मंगल राम, डा. सब्बा अहमद, श्री सुमरित मंडल एवं हसन रिजवी थे। इनके अलावे उन वक्त पूर्व विधायक शिवा महतो आदि थे। हम बहुत बडी तादाद में राजघाट पर धरना नहीं दे सकते थे क्योंकि झारखंड से दिल्ली जाना वहां ठहरने एवं अन्य व्यवस्था करने लायक हमारी क्षमता नहीं
थी। अत: हम पार्टी के केन्द्रीय समिति के सदस्य तथा प्रमुख लोग सौ की संख्या में दिल्ली आए थे और धरने पर बैठे थे।
उस दिन तेज धूप थी। आसमान जैसे आग उगल रहा था। तापमान 46 डिग्री सेलिसियस तक पहुंच गया था। गर्म हवा चेहरों को झुलसा रही थी। सुबह नौ बजे राजघाट के मुख्य प्रवेश द्वार के बाएं किनारे एक छोटा सा शामियाना धूप से बचने के लिये लगा लिया था। दरी बिछा दी गई थी। हम सभी हरे रंग की पगडी बांधे थे। कोई कोई अपनी बाहों में हरे रंग की पट्टियां बंधे थे। अपनी छाती पर भी कुछ
लोग झारखंड अलग राज्य का बैनर बांधे हुए थे। उस पर हमारी पार्टी का नाम सफेद रंग से लिखा हुआ था। शामियाने के चारो ओर झंडा बैनर लगा दिये गये थे। कुल मिलाकर दृश्य आकर्षक बन गया था गया था। समाधि में आने जाने वाले लोगों की नजर हमारी तरफ उठ जाती थी। खासकर विदेशी पर्यटकों की नजरें हमें घुरती नजर आती।
धरने से पहले रोड दुर्घटना जैसी संकट से सामना करना पड़ा -
उस दिन मैं और कृष्णा मार्डी अपने अपने निवास से चले और साथ हो लिये थे। एक हीं गाड़ी में थे। बिहार भवन से एक एम्बेसडर गाड़ी मंगाई थी। जब हम गोल पोस्ट ऑफिस गुरूद्वारा बंगला साहिब के पास पहुंचे और कनाट प्लेस वाले रास्ते पर आगे बढे तो अचानक एक व्यक्ति हमारी गाड़ी के सामने आ गया। ड्राइवर ने जोर से ब्रेक मारा। तो भी वह वयक्ति गाड़ी से टकरा गया और सड़क पर उछल गया और गिर पड़ा। हमारी तो जान सुख गई। पर थोड़ी ही देर मे वह व्यक्ति उठ खड़ा हुआ। इतने में ही चारो ओर से हो हल्ला होने लगा। अगल-बगल से लोग चिल्लाने लगे। हम बड़ी असमंजस में थे। मैंने तुरंत निर्णय लिया और ड्राइवर को गाड़ी भगाने को कहा। मुझे डर था कि जनता या पुलिस की चक्कर में आ जाने से पूरे धरने का कार्यक्रम ही चौपट हो जायेगा। घटना स्थल से धरना स्थल की ओर हम तेजी से आगे बढे। पर एक पुलिस जीप जो पास ही खड़ी थी हमारे पीछे लग गई। पीछा करने लगी। हम रिंग रोड पर निकल आए थे। कोई उपाय पुलिस गाड़ी से बचने का दिखा नहीं। हमने ड्राइवर को सीधे संसद के अंदर चलने को कहा। हम तेज भागे और संसद के कम्पाउंड में घूस गये। संसद भवन के ड्राइवर को गाड़ी पार्क करने को कह दिया। संसद सत्र चल रहा था। पुलिस की गाड़ी बिना अनुमति के संसद भवन के अंदर घुस नहीं सकती थी। हमारी गाडी में बिहार भवन का निशान लगा था। फिर एक घंटे बाद हम राजघाट की ओर चल दिये।
हमारी पार्टी का गठन हुए ज्यादा वक्त नहीं हुआ था। हम झामुमो से अलग हुए थे और अलग पार्टी बना ली थी। हमने अपने धरने की सूचना संसद भवन के पत्रकारों को दे दी थी। हम नहीं जानते थे कि प्रेस को कैसे मैनेज किया जाता है। हमारी मीडिया के लोगों से उतनी जान पहचान भी नहीं थी।
झारखंड राज्य की मांग को लेकर पहली बार ऱाजघाट पर धरना -
इस धरने की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि हमारी पार्टी झामुमो(मार्डी) से पहले किसी भी झारखंड नामधारी एवं झारखंड अलग राज्य की मांग करने वाले किसी भी दल ने अलग झारखंड राज्य के लिये कोई भी कार्यक्रम राजघाट पर नहीं किया गया था। दिल्ली में भीकोई प्रदर्शन अलग राज्य के लिए किसी दल ने नहीं किया था, झामुमो ने भी नहीं। सभी झारखंड क्षेत्र के अंदर ही हल्ला करते रहे। आंदोलन करते रहे। पहली बार देश की राजधानी दिल्ली में वह भी महात्मा गांधी की समाधि पर यह कार्यक्रम हमने रखा था। हमने राजघाट की समाधि पर माथा टेका। फूल मालाएं अर्पित की और धरने पर बैठ गये। शारीरिक रूप से उन दिनों में अस्वस्थ्य चल रहा था। एक तो मुझे हाई ब्लड प्रेसर का रोग लग चुका था और उन दिनों पाइल्स से भी जूझ रह था। मैं ठीक से बैठ भी नहीं पाता था। दिन के दो बजते-बजते हम गर्मी से परेशान हो चुके थे। टेकलाल महतो, विधायक, मांडु बेहोश होने लगे। शायद लू लग गई थी। लिहाजा उन्हें वापस मेरे नार्थ एवेन्यू के फ्लेट में आराम करने भेज दिया गया। इस बीच हमारे धरना स्थल पर काफी लोग आ रहे थे और पूछताछ कर रहे थे। हम लोगों को समझा रहे थे कि यह ‘झारखंड’ क्या है ? उसका आंदोलन क्या है ? आदि आदि। विदेशी पर्यटको को ज्यादा उक्सुकता थी और वे ज्याद जिज्ञासु भी थे। मैं उन्हें अंग्रेजी में समझाने की कोशिश भी करता। ज्यादातर विदेशी यह समझ रहे थे कि शायद हम किसी प्रकार के विद्रोही थे और भारत सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे थे। खैर। पूरा दिन किसी प्रकार बीत गया। मजे की बात तो यह हुई कि कुछ साधु –संत भी आकर हमारे शामियाने में विराज गये और साथ बैठे रहे।
मीडिया ने महत्व नहीं दिया -
लेकिन कोई प्रेस वाल या फिर टीवी चैनल वाला हमारे पास नहीं आया। मीडिया ने संभवत: हमारा नोटिस ही नहीं लिया। उनके लिये यह कोई महत्वपूर्ण बात ही नहीं रही होगी। झारखंड-झारखंड चिल्लाने वाले हम सांसदो और विधायकों को शायद महत्वपूर्णहीन समझ रहे होंगे। शाम छह बजे बोरिया बिस्तर समेट कर वापस आ गये। थकान के मारे लोग रात भर सोते रहे। पर हमारी हालत इतनी खराब थी
कि दर्द से परेशान से था। पाइल्स का दर्द न तो उठने देता और न हीं बैठने। पर फिर भी किसी तरह सो गया। सुबह उठे तो सभी अखबार देखने लगे। आशा थी कि हमारे धरने के संबंध में कोई समाचार छपा हो। पर हमें निराशा हाथ लगी। किसी भी अखबार में कोई बात नहीं छपी थी, इस धरने के बारे में। हमें आश्चर्य हुआ था कि झारखंड मुक्ति मोर्चा के दो भागों में बंट जाने की कहानी तो बड़ी नमक मिर्च लगाकर छापी जाती रही थी पर आंदोलन के विषय में मीडिया चुप था। झारखंड राज्य के लिये यह पहला कार्यक्रम दिल्ली में क्या गया था। पर मीडिया ने इसे थोड़ा भी महत्व देना जरूरी नहीं समझा। नौ विधान सभा सदस्यों और दो सांसदों के साथ कई पूर्व विधायकों की टीम को कोई महत्व नहीं दिया गया था। शायद हमारा प्रयास बचकाना था या फिर महत्वहीन ही रहा होगा।
सांसद बनने से पहले हाई कोर्ट में सरकारी वकील था -
व्यक्तिगत रूप से राजनीति के आकाश में मैं अचानक उभर आया था। राजनीति से संबंध तो बहुत पुराना था पर संसदीय राजनीति में अचानक सामने आ गया था। अपने पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद गिरिडीह लोक सभा सीट खाली हो गई थी। मुझे किसी प्रकार झामुमो से टिकट मिल गया था। क्योंकि पिता झामुमो के संस्थापक अध्यक्ष भी थे। वैसे मैं लोक सभा सदस्य बनने के लिए मैं
ज्यादा इच्छुक भी नहीं था। पिताजी के निधन के समय मैं रांची में था और वहीं पटना हाई कोर्ट की खंडपीठ रांची में सरकारी वकील था। मेरा नाम हाई कोर्ट जज के लिए भी अमुमोदित था। पर मझे चुनाव में कूदना पड़ा। जीत जाने के महीने भर के अंदर हीं मैं अखबारों के सुर्खियों आ गया था। झामुमो का विभाजन मेरे कारण हुआ था। लालू प्रसाद की सरकार को गिरने से बचा लिया था।
राष्ट्रपति भवन से वार्ता के लिये विशेष बुलावा -
बहरहाल धरने के दूसरे दिन हीं दोपहर में राष्ट्रपति भवन से एक फोन आया और मुझे सुचित किया गया कि दिनांक 7 मई 1993 के दिन बारह बजे देश के महामहीम राष्ट्रपति सर्वश्री शंकर दयाल शर्मा हमसे वार्ता के इच्छुक हैं। इसके लिये पांच मिनट का समय निर्धारित किया गया है। वार्ता का विषय हमारा झारखंड आंदोलन था। हमें जानकारी देकर इस बात की पुष्टि कर ली गई कि हम वहां 12 बजे से पहले पहुंच जायें। श्री कृष्णा मार्डी को भी यही सूचना दी गई थी। हमें आश्चर्य हुआ था कि उस धरना के कार्यक्रम को मीडिया ने संज्ञान तक नहीं लिया और उसी धरने के दूसरे दिन यह सूचना राष्ट्रपति
भवन से आई थी। हमने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी वार्ता महामहिम राष्ट्रपति महोदय से हो पायेगी। झारखंड राज्य का विषय गृह मंत्रालय का था और केन्द्र सरकार को उसके विषय में निर्णय लेना था। उस मांग के संबंध में राष्ट्रपति की भूमिका के विषय में हम अंजान थे। इतना हीं नहीं मैं जानता था एक वकील होने के नाते कि किसी भी प्रकार के नये राज्य बनाने का बिल माननीय राष्ट्रपति के
अनुमोदन के बिना संसद में पेश नहीं किया जा सकता। झारखंड अलग राज्य निर्माण का मुद्दा इतना महत्वपूर्ण था कि इसमें किसी निर्णय के पूर्व भारत के महामहिम राष्ट्रपति से वार्ता जरूरी था। देश में आजादी के पूर्व और आजादी के बाद कई राज्य बने थे। इतना लंबा संघर्ष शायद किसी के लिये नहीं करना पड़ा था।
राष्ट्रपति भवन के बुलावे ने यह सोचने पर हमे बाध्य कर दिया था कि शीघ्र हीं अंतिम निर्णय होने वाला था। यह निर्णय क्या था? हमारे दिल धड़क रहे थे। हम अजीब अजीब सवालों के बीच घिर गये थे। अगर अंतिम निर्णय लेना हो तो इसमें हमारी बातें सुनना या हमलोगों से राय लेना जरूरी क्यों था? इसके पहले तो किसी भी राजनीतिक नेताओं को झारखंड में राष्ट्रपति द्वारा इस विषय पर वार्ता
करने बुलाया नहीं गया था।
7 मई 1993 को राष्ट्रपति भवन पहुंचे -
दिनांक 7 मई 1993 को सुबह हीं मैं तैयार हो गया था। मैं श्री कृष्णा मार्डी का इंतजार कर रहा था। श्री मार्डी ज्ञापन लेकर नॉर्थ एवेन्यू पहुंचे, जो हमें महामहिम राष्ट्रपति को देना था। यह ज्ञापन बुकलेट की शकल में था और मोटा था। बड़ी मेहनत करके इसे बनाया गया था जिसमें झारखंड आंदोलन का इतिहास, इसकी विशेषताएं, भाषाएं, सभ्यताएं, खेल-कूद, रीति-रीवाज आदि के विषय में संक्षिप्त में
जानकारी दी गई थी। हमने तय किया था कि इस ज्ञापन को महामहिम राष्ट्रपति सर्वश्री शंकर दयाल शर्मा को समर्पित करेंगे। मैं और श्री कृष्णा मार्डी दिन के ग्यारह बजे रवाना हुए। पांच मिनट का रास्ता था नॉर्थ एवेन्यू से। हमलोग एम्बेसडर कार में थे जिसे बिहार भवन से मंगवाया गया था। जब हमारी गाड़ी राष्ट्रपति भवन के मुख्य द्वार पर पहुंची, तब एक प्रहरी आया और पूछा। फिर जाने दिया गया। मुख्य द्वार से लंबा रास्ता कार ड्राइव का है। फिर जाकर पार्किंग की जगह है। दोनो ओर उद्यान हैं। गुलाबी सैंड-स्टोन से बने फव्वारे सीढियां आदि आदि। पार्किंग के बाद फिर बहुत बडा भवन। उसके नीचे से पार होने पर फिर बहुत बड़ा सहन। हमें बड़ी इज्जत के साथ ले जाया जा रहा था। राष्ट्रपति भवन को पहली बार हम इतनी नजदीक से देख रहे थे। विशाल राष्ट्रपति भवन। न जाने कितने महत्वपूर्ण निर्णय लिये गये होंगे यहां। न जाने कितने देशों के राष्ट्रपति, संदेश वाहक, राजदूत पधारे होंगे। न जाने कितने इतिहास छुपे होंगे इस चारदीवारी के भीतर। इसका विशाल आकार और वस्तु कला देखकर हम चकित थे।
जब हम राष्ट्रपति भवन में सहम से गये -
महान भारत की कार्यपालिका के प्रमुख तथा भारतीय संसद के प्रमुख यहां निवास करते थे। राष्ट्रपति को देश का प्रथम नागरिक भी कहते हैं। महामहिम की महिमा ऐसी है कि अपनी मां के चरणों में भी झुकने की मनाही है। इतनी गरिमा है इस पद की। सरकार की कार्यपालिका द्वारा संपादित प्रत्येक कार्य भारत के राष्ट्र के नाम से हीं संपादित होता है। ‘इन द नेम ऑफ दी प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ कहना लिखना जरूरी है। भारत वर्ष की तीनों सेनाओं वायू, थल और जल के सुप्रीम होते हैं भारत के राष्ट्रपति। राष्ट्रपति भवन के लंबी गलियारों से चलते हुए हम आगे बढ रहे थे। हमारे साथ राष्ट्रपति भवन के दो लोग थे। महामहिम के बैठक तक ले जाने के पूर्व हमें तीन जगहों यानि तीन कमरों में बारी बारी से बैठाया गया। हम वैसे हीं राष्ट्रपति भवन की भव्यता, उसके गैलरियों की सजावट, मीनाकारी, चित्रकारी देखकर अचंभा में थे। इस प्रकार चुपचाप तीन जगहों पर बैठने से हम अंदर से सहम से गये थे। ठीक बारह बजे हमें राष्ट्रपति के वार्ता कक्ष में बैठा दिया गया था। वहां महामहिम के कुछ सुरक्षा गार्ड थे जो परम्परागत वेश-भूषा में तैनात थे। वे बड़े ऊंचे कद काठी के थे। श्री कृष्णा मार्डी भी ऊंचे कद काठी, मजबूत शरीर के स्वामी हैं। पर वे जवान उनसे भी शक्तिशाली एवं शानदार दिख रहे थे।
महामहिम राष्ट्रपति डा. शर्मा पहली बार मुलाकात –
राष्ट्रपति भवन के उस कक्ष को देखकर लगा कि हम बहुत मामुली लोग हैं। सांसद होने का जो भी गुरूर था वह हवा की तरह निकल गया। राष्ट्रपति महामहिम शंकर दयाल शर्मा हमारे सामने थे। हमने उन्हें हाथ जोड़कर झूककर प्रणाम किया। उन्होंने ने भी हमें हाथ के इशारे से बैठ जाने को कहा। वहां कई सोफे थे। हम एक साथ लंबे सौफे पर बैठ गये। राष्ट्रपति हमारे दाहीने हाथ की तरफ एक सौफे पर बैठे थे। टेबल पर पानी, चाय, बिस्कुट एवं मिठाइयां रखी थी। हमें इशारे से उन्हें लेने को कहा गया। हमने यत्रवत एक एक मिठाई खाई और चुपचाप खा गये। पानी पीया। सोच रहा था कि सिर्फ पांच मिनट का समय है, हम अपनी बात किस प्रकार और कहां से शुरू करें।
महामहिम राष्ट्रपति से वार्ता –
राष्ट्रपति महोदय ने कहा कि आपलोग झारखंड अलग राज्य के लिये क्यों आंदोलन कर रहे हैं ? उस मांग को तो पंडित जी (प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू) के समय ही खारिज कर दिया गया था। राज्य पुनर्गठन ने उसकी सिफारिश नहीं की थी। इस प्रश्न को सुनकर हमने एक दूसरे की ओर देखा। इस प्रश्न का मैंने पहले भी कई बार सामना कर चुका था। मैंने तुरंत जवाब दिया कि सर। राज्य पुनर्गठन आयोग ने 1955-56 में जो रिपोर्ट केन्द्र सरकार को समर्पित किया था, उसमें गलत कारण दिखाकर मांग को अस्वीकृत कर दिया था। अगर आयोग ने वस्तुस्थिति के अनुरूप रिपोर्ट दी होती तो निश्चय ही अलग झारखंड राज्य के समर्थन में आयोग को मतन्तव्य देना पड़ता। इस पर महामहिम ने कहा कि आपके कहने भर से आयोग की रिपोर्ट को गलत नहीं ठहराया जा सकता। इस पर मेरा जवाब था कि सर, यह सिर्फ मेरा कथन नहीं है। हाल ही में जो ‘झारखंड विषयक समिति’ बनाई गई थी केन्द्र सरकार के गृह विभाग द्वारा, उस समिति की रिपोर्ट में जो मई 1990 में प्रकाशित हुई है, स्पष्ट कर दिया गया है।
उसमें तीन प्रमुख कारण झारखंड राज्य बनाने के संबंध में दिये गये थे। वे तीनो ही कारण गलत थे। राष्ट्रपति महोदय ने हमारी ओर गौर से देखा और हमें तकनीकी आधार पर सवाल किया कि एक बार जिस विषय को केन्द्र ने बंद कर दिया है, उसे दुबारा उठाना कैसे युक्ति संगत हो सकता है। हो सकता है सर, मैंने तुरंत कहा क्योंकि जिस आयोग ने रिपोर्ट दी थी वह भी गृह मंत्रालय द्वारा गठित आयोग था और यह वर्तमान समिति ‘झारखंड विषयक समिति’ भी गृह मंत्रालय ने बनाई। यह एक उच्च स्तरीय समिति बनी। इसमें केन्द्र सरकार के प्रतिनिधि, बिहार सरकार के प्रतिनिधि, झारखंड आंदोलनकारी नेता, सांसद के साथ साथ विधि विशेषज्ञ एवं अन्य विशेषज्ञ भी शामिल थे। इस प्रकार केन्द्र सरकार ने एक उच्च स्तरीय समिति बनाकर झारखंड अलग राज्य की मांग के विषय को पूनर्जीवित कर विषय को फिर से खोल दिया है। राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा प्रकांड विद्वान थे। उस जवाब को सुनकर थोड़ी देर के लिए चुप रहे फिर उन्होंने कहा कि अब बताओ आप किस आधार पर राज्य की मांग करते हैं? तथा वो क्या कारण थे जिसके आधार पर राज्य पुनर्गठन आयोग ने सिफारिश नहीं की थी? वे कारण गलत कैसे थे? हम खुश थे कि अब हम वार्ता को सही दिशा दे पाये थे।
राष्ट्रपति जी से वार्ता के दौरान चर्चित 3 महत्वपूर्ण कारण -
पहला - हमने कहा कि राज्य पुनर्गठन आयोग ने तीन प्रमुख कारण दिखाए थे और जो आधार बने थे सिफारिश के विरूद्ध पहला कारण यह दर्शाया गया था कि यह आंदोलन झारखंड क्षेत्र के आदिवासियों द्वारा ही किया जा रहा था। आदिवासियों की मांग झारखंड में सिर्फ 30 प्रतिशत थी। अत: यह मांग अल्पसंख्य आदिवासियों की मांग थी। आदिवासी का अर्थ अनुसूचित जनजाति माना जा रहा था। हमने इस बाबत माननीय राष्ट्रपति जी को झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट का हवाला दिया और उन्हें दिखलाया कि इस रिपोर्ट में कहा गया था कि 1952 के आम चुनाव में हीं बिहार में झारखंड पार्टी के 30 विधायक जीते थे वे सभी झारखंड क्षेत्र से थे। इनमें से 10गैरआदिवासी थे। अत: यह कहना कि सिर्फ आदिवासी ही इस झारखंड आंदोलन में भागीदार थे गलत था। राष्ट्रपति महोदय हमारी बातें ध्यान पूर्वक सून रहे थे। इतने मैं दरवाजा खोलकर एक सुरक्षा कर्मी अंदर आया और दीवार घड़ी की ओर हाथ से इशारा किया। हमने देखा पांच मिनट का समय बीत चुका था। हमें पता हीं नहीं चला। बात अधूरी रह गई थी। इतने में माननीय राष्ट्रपति महोदय ने उसे बाहर जाने को कहा। वार्ता फिर शुरू हुई।
दूसरा कारण – हमने फिर उनसे कहा कि महामहिम दूसरा कारण जो दिखलाया गया था आयोग के द्वारा, वह यह था कि झारखंड राज्य अगर बनेगी तो उसकी संपर्क भाषा नहीं बन पायेगी। क्योंकि वहां एक ही संपर्क भाषा नहीं है कई है। इस पर जो रिपोर्ट में कहा गया था वह भी हमने राष्ट्रपति जी के समक्ष रख दिया। झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि हिन्दी
आज पूरे देश की राष्ट्र भाषा है। देश में किसी भी राज्य की संपर्क भाषा सम्पूर्ण रूप से हिन्दी नहीं है। बिहार में उदाहरण के लिये भोजपुरी, मगही, मैथली आदि बोलियां-भाषायें हैं। उत्तर प्रदेश में भी अवधी, भोजपुरी, खड़ी बोली आदि है। पंजाब में पंजाबी आदि सभी प्रदेशों में अलग अलग। अत: जब बिहार में हिन्दी से काम चलाया जा रहा है। पूरे देश में इंग्लिश से काम चलाया जा रहा है, तो
झारखंड में भी जो बिहार का हिस्सा होगा, हिन्दी से काम चलाया जा सकता है। अत: सम्पूर्ण प्रदेश में किसी एक ही सम्पर्क भाषा का होना आवश्यक नहीं है। इस बीच एक बार फिर सुरक्षा कर्मी आया और घड़ी की ओर इशारा किया लेकिन इस बार भी राष्ट्रपति महोदय हमें सुन रहे थे और सुरक्षा कर्मी को चले जाने को कहा। लग रहा था कि हमलोगो के बाद भी राष्ट्रपति महोदय ने और भी लोगों को
मिलने का समय दिया था। हमें सिर्फ पांच मिनट का समय दिया गया था लेकिन वार्ता लगातार चल रही थी। राष्ट्रपति महोदय मेरी बातों में रूचि भी ले रहे थे।
तीसरा कारण – हमने कहा सर, राज्य पुनर्गठन आयोग ने दर्शाया था कि अगर झारखंड राज्य को संबंधित राज्य से अलग कर दिया जायेगा तो संबंधित राज्य की माली हालत एकदम खराब हो जायेगी। आय एवं रोजगार के अधिकतम संसाधन झारखंड क्षेत्र में है। इस पर भी झारखंड विषयक समिति की रिपोर्ट में उल्लेखित है कि देश में पंजाब और हरियाणा के पास एक भी खदान या खनिज पदार्थ नहीं
है। पर सिर्फ कृषि के बल पर एवं बाहर से कच्चा माल लाकर, फैक्ट्रियां लगा कर ये देश के अग्रणी प्रदेश बने हुए हैं। वहां की जमीन की जो उत्पादन क्षमता है वह बिहार या शेष बिहार जो बचेगा, उससे कम है। यही हाल दूसरे संबंधित राज्यों का है। तो बिहार क्यों नहींतरकी कर सकता है? अत: यह कहना कि बिहार की माली हालत खराब हो जायेगी।
झारखंड आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र आपकी बात क्यों मानेगी ?
अलग राज्य आंदोलन कमजोर हो चुका है। केन्द्र सरकार आपकी बात क्यों मानेगी ? राष्ट्रपति महोदय ने यही सवाल हमलोगों से पूछा। इस पर हमने कहा कि सर हमें यह बात समझ में नहीं आती है कि देश में आजादी के बाद कई नये राज्य बनाये गये, बिना आंदोलन के। पंजाब और हरियाणा अलग हुए। गुजरात एवं महाराष्ट्र अलग हुए। मद्रास एवं कर्नाटक अलग हुए। सीमांत में कई नये राज्य बनाये
गये। फिर झारखंड राज्य के गठन के लिये आंदोलन को पैमाना क्यों बनाया गया और क्यों बनाया जा रहा है ? हमने राष्ट्रपति जी से पलट कर सवाल रख दिया। वे चुप थे। पचास वर्षों के आंदोलन को जब मौका आया कुचल दिया गया या खरीद लिया गया। आम जनता के ह्रदय में आज भी यही मांग बसी है। पूरे देश में जब भाषा संस्कृति के आधार पर नये राज्यों का गठन कर दिया गया है, झारखंडी सभ्यता संस्कृति की भी अलग पहचान है। तो भी इसे अलग राज्य का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। हमने महामहिम राष्ट्रपति जी से गुहार लगाई कि हमारे साथ ऐसा सौतेला व्यवहार न किया जाये। हमारी सभ्यता संस्कृति और पहचान को मिटने से बचाया जाये।
झारखंड के विकास के लिये शक्तिशाली परिषद की पेशकश –
माननीय राष्ट्रपति जी ने कहा कि वे भी तो चाहते हैं कि झारखंड का विकास हो। और विकास के लिये अगर सरकार अलग राज्य देने से भी बढिया चीज आपको दे तो क्या आप विरोध करेंगे ? हमने कहा कि कदापि नहीं। पर वैसा कौन सा विकल्प है उसे हमलोगों के सामने और झारखंडी जनता के सामने भी सरकार को रख देना चाहिये। इस पर राष्ट्रपति महोदय ने हमारी तरफ देख कहा कि झारखंड
क्षेत्र के लिये एक विशेष प्रकार के शक्तिशाली परिषद के गठन की बात केन्द्र सरकार सोच रही है। उस परिषद में इतनी शक्तियां प्रदान की जायेगी कि आपलोग झारखंड का विकास भली भांति कर सकेंगे।
मेरी आशंका सही निकली –
हमें पहले से इस बात कि आशंका थी जैसा कि मैंने पहले हीं इंगित किया है कि हमारे झारखंड के नेताओं ने आर्थिक नाके बंदी के आंदोलन को अलग राज्य की शर्त पर नहीं, अन्य किसी शर्त पर वापस ले लिया था। आज मेरी आशंका सत्य प्रतीत हो रही थी। अब हमें यह समझ में आ गया था कि क्यों राष्ट्रपति महोदय ने हमें बुलाया था? मैं तो चकित रह गया था। यह क्या हो रहा है। मैंने राष्ट्रपति महोदय से पूछा कि सर, इस परिषद के विषय में किन लोगों ने सहमति जाहिर किया है? राष्ट्रपति महोदय ने सोचा की अब हम परिषद की बात पर सोचेगें। उन्होंने कहा कि यह जो परिषद बनेगा वह बहुत ही अच्छा होगा। पूरा फंड दिया जायेगा। विधिवत चुनाव होगा। उसमें विशिष्ट शक्तियां निहीत होंगी।
परिषद से झारखंड वासियों को कोई लाभ नहीं होगा-
इस पर मैंने बड़ी शिष्टता से प्रणाम करते हुए कहा कि सर, आजतक बहुत सारे परिषद झारखंड क्षेत्र के विकास के लिये बनाये गये हैं। 1951 में भी एक परिषद बनाया गया था, जिसका नाम झारखंड विकास परिषद था। फिर झारखंड आंदोलन जोर पकड़ता रहा। आंदोलनकारी नेताओं की तृष्टि के लिये किसी न किसी प्रकार का परिषद बना दिया गया और उन्हें कोई न कोई पद दे दिया गया। 1971 में भी छोटानागपुर संथाल परगना विकास प्राधिकरण का गठन किया गया था। फिर 1978 में भी झारखंड विकास परिषद बनाया गया। इसके अलावा ट्राइवल डेभेलपमेंट प्रोजेक्ट के नाम पर कितने ही उपाय किये गये, पर झारखंड अलग राज्य की मांग उठती ही रहीं। झारखंड के लोग इन प्रयोगों से संतुष्ट नहीं हो सके। क्योंकि उनकी समस्याओँ का समाधान नहीं हो पाया। ये सारे परिषद विफल हुए।
सर, मेरा मानना है कि किसी भी प्रकार के परिषद को इतनी शक्ति भारतीय संविधान के तहत प्रदान नहीं किया जा सकता है कि वह राज्य सरकार के मर्जी के बिना चल सके। झारखंड के जल, जंगल और जमीन संबंधी समस्याओं का समाधान तो तभी हो सकता है, जब इन विषयों पर झारखंड में कानून बनाया जा सके। परिषद को कानून बनाने की शक्ति कभी प्रदान नहीं की जा सकती है। सिर्फ विधान सभा ही ऐसा कर सकती है।
झामुमो नेता शिबू सोरेन और अन्य दल के लोग भी परिषद के लिये राजी –
माननीय राष्ट्रपति जी के मन में मेरे बात का क्या प्रभाव पड़ रहा था यह तो हम नहीं बता सकते, पर इतना जरूर कह सकते हैं कि वे गंभीर हो गये थे। उन्होंने पहले कुछ पूछे गये प्रश्नों को फिर दोहरा दिया। कहा कि जब सारे राजनीतिक दल झारखंड के विकास के लिये एकमत होकर प्रस्तावित परिषद पर सहमत हैं और अलग राज्य की मांग छोड़ दी है तो आप लोग क्यों नहीं मान रहे ? उन्होंने आगे
कहा कि आपके झामुमो नेता शिबू सोरेन ने भी इसे स्वीकार कर लिया है। यह सुनकर कि झारखंड नामधारी दल के सांसदों एवं दूसरे दलों ने भी प्रस्तावित किसी प्रकार के परिषद का समर्थन कर दिया है, हमें थोड़ा झटका लगा। कांग्रेस और जनता दल यह षडयंत्र कर ही रहे थे। पर शिबू सोरेन जो झामुमो के अध्यक्ष थे और शुरू से जिस झामुमो के संविधान में बिहार, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा और मध्य प्रदेश के सीमवर्ती झारखंड क्षेत्रों को मिलाकर एक राज्य गठन करने का लक्ष्य ही रखा गया था, उसकी मांग छोड़ परिषद के मुद्दे पर वे राजी हो जायेंगे, ऐसी उम्मीद हमें नहीं थी। अब हमें पता चल चुका था
कि आर्थिक नाकेबंदी को वापस लेने का मुख्य कारण क्या था?
कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका समझ से परे –
भारत में कम्यूनिष्ट पार्टी की भूमिका को मैं आज तक समझ नहीं सका। कम्यूनिष्टों के महान नेता लेनिन ने कहा था कि शोषित, दलित और राष्ट्रीयताओं को उनके स्वाबलंबन दिलाने का काम कम्यूनिष्ट का पहला कर्तव्य था। क्या यही भारत वर्ष के कम्यूनिष्टों ने सिखा था कि साठ वर्षों से चलने वाला झारखंड की सभ्यता संस्कृति को, उसकी पहचान को बरकरार रखने के लिये जूझने वाला झारखंड आंदोलन को मुकाम पर नहीं पहुंचा कर दिग्भ्रमित कर दिया जाये। भारतीय जनता पार्टी जो लगातार लालू यादव और कांग्रेस के विरूद्ध रही उसने भी इस प्रस्तावित परिषद पर सहमति दे दी। जनसंघ के समय से हीं इस पार्टी ने अलग झारखंड राज्य की गठन की मांग को माना था भले हीं वह वनांचल के नाम से ही क्यों न हो मन में कई सवाल उठ रहे थे। हमारा विश्वास डगमगाने लगा था। जब सभी प्रस्तावित परिषद की बात कर रहे थे तो एक बारगी मेरे मन में भी विचार आया कि हो सकता है कि यही रास्ता सही हो झारखंड के विकास का। लेकिन फिर मन में विचार आया कि लगता है कि सारे लोगों ने एक बार फिर झारखंडियों को छलने का काम किया है। जितने भी राजनीतिक दल थे उनके आका झारखंड के बाहर के लोग थे, सिर्फ झारखंड नामधारी दलों के सिवा। हमारी लड़ाई ही बाहरी वर्चस्व के खिलाफ थी। मुझे लगने लगा कि एक बार फिर अनपढ और अनुभवहीन झारखंडी नेताओं को लाचारी नजर आयी होगी। उन्हें यह लगा होगा कि जब ये लोग राज्य देगा हीं नहीं तो जो मिलता
है वही ले लो। ऐसा ही लगता है कि झारखंड के नेताओं ने सोचा था।
राष्ट्रपति महोदय अलग झारखंड राज्य से कम पर कोई समझौता नहीं –
हमने मन ही मन तय किया कि झारखंड की जनता को बतायेंगे कि उनके साथ दगा किया गया है। अन्याय किया गया है। मैंने माननीय राष्ट्रपति जी से कहा कि सर मैं राजनीति के खेल को अच्छी प्रकार नहीं समझता। मैं इस खेल में नया आया हूं पर एक बात अच्छी प्रकार से जानता हूं कि सच्चाई का साथ देना चाहिये। सच्चाई यह है कि पचास वर्षो से झारखंड क्षेत्र की जनता पीस रही है अन्याय एवं अनाचार से। हमारी सभ्यता संस्कृति सभी नष्ट हो रहें है। हमारी पहचान मिट रही है। हम अपने आपको तभी बचा पायेंगे जब जमीन पर कानून बनाने एवं स्वामित्व का अधिकार झारखंडियों का होगा। यह सिर्फ अलग झारखंड राज्य से ही संभव है। इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है। सर हम किसी भी प्रकार के परिषद के निर्माण पर सहमति नहीं दे सकते। यह झारखंडियों के साथ बेईमानी होगा।
आपको प्रधानमंत्री से बात करनी चाहिये-
संसद भवन में जनता ने हमें इसलिये भेजा है कि हम झारखंड अलग राज्य की बात करें। हम उनके साथ धोखा नहीं कर सकते। महामहिम राष्ट्रपति महोदय ने थोड़ी देर तक मेरी तरफ देखा और कहा कि आपको देश के प्राधानमंत्री से बात करनी चाहिये। वे मान जाते हैं तो आपकी मांग पूरी हो सकती है। इस पर मैंने कहा कि माननीय महोदय प्रधानमंत्री जी के साथ व्यक्तिगत तौर पर कभी बातचीत नहीं हुई। उन्होंने कभी नहीं बुलाया। जो भी वार्ता हुई माननीय गृहमंत्री जी के साथ ही हुई।
झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे -
राष्ट्रपति महोदय हम तो बड़े भाग्यशाली हैं कि आपने हमें बुलाया। और हमारी बातें इतनी देर तक सुनते रहे। हम तो अनुभवहीन लोग हैं। हो सकता है अज्ञानता के कारण हमने कोई गलत बात आपसे कह दी हो। हम क्षमा प्रार्थी हैं सर। इस पर माननीय राष्ट्रपति मुस्कुराये। हमने कहा कि जब देश का सर्वोच्च व्यक्तित्व प्रभावित हुआ है, तो आपके आशीर्वाद से हम एक न एक दिन झारखंड अलग राज्य लेकर रहेंगे। ऐसा विश्वास हमें आपसे मिलने के बाद पैदा हो गया है।
मेरे बारे में राष्ट्रपति महोदय ने पूछताछ की -
अचानक राष्ट्रपति महोदय ने पूछा कि आप राजनीति कितने सालों से कर रहे हैं ? सर, मैं पहली बार लोक सभा का सदस्य बना हूं। वह भी अपने स्वर्गीय पिता बिनोद बिहारी महतो के निधन के बाद लोक सभा की जो सीटे खाली हुई, उससे उपचुनाव में जीत कर आया हूं। मैने चुनाव जीता 10 जून 1992 को। करीब ग्यारह महीने हो रहे हैं। अगला सवाल पूछा गया कि उससे पहले क्या करते थे? मैंने कहा
कि पटना हाई कोर्ट के रांची खंडपीठ में सरकारी वकील था। और अगर चुनाव न लड़ता और समय न बदलता तो आपकी कलम से मेरी नियुक्ति हाई कोर्ट के जज के रूप में हो गई होती। यह सुनकर उन्होंने कहा कि वे रांची को अच्छी तरह जानते हैं। और कई बार वहां गये भी। राष्ट्रपति महोदय को न जाने क्या सुझा उन्होंने मुझसे कहा कि आजकल तुम कहां रहते हो क्या गिरिडीह में रहते हो? मैंने कहा कि सह मैं धनबाद में रहता हूं वहां हमारा पैतृक घर है। तब उन्होंने मुझसे पूछा था कि क्या मैंने इंडियन स्कूल ऑफ माइन्स के बारे में सुना है? मैंने सिर्फ कहा कि हां तब उन्होंने बताया कि वहां मेरा नाती पढता था, माइनिंग इंजीनियरिंग में। इस पर मैंने उनको बताया कि मैंने भी माइनिंग इंजीनियरिंग की डिग्री वही से हासिल की है। और 1968 में पास हुआ था। तो वे बोले की उनके नाती उनसे कई साल सीनियर थे। इस प्रकार की वार्ता भी राष्ट्रपति जी से हुई। इस बीच कई बार उनका सुरक्षा कर्मी भीतर आया और घड़ी की सुई की ओर इशारा किया। पर माननीय राष्ट्रपति महोदय वार्ता को हर बार आगे बढाते रहे। इस प्रकार आधा घंटा बीत चुका था।
राष्ट्रपति महोदय को ज्ञापन -
अंत में हमने अपना ज्ञापन उन्हें सौंप दिया और एक प्रति पर अन्दर के प्रथम पृष्ट पर उनका हस्ताक्षक मांगा। राष्ट्रपति महोदय ने मजाक किया और कहा कि आपलोग बड़े चतुर मालूम पड़ते हो। इस ज्ञापन के अंदर हमसे हस्ताक्षर कराकर अपने दल में शामिल करना चाहते हो। उन्होंने कहा कि वे ज्ञापन के मुख्य पृष्ट पर अवश्य हस्ताक्षर कर देंगे। उन्होंने अपनी कलम उठाई और हस्ताक्षर करना चाहा
लेकिन मुख्य पृष्ट प्लास्टित कोटेड था, कलम फिसल गई। और लिखा नहीं जा सका। तब उन्होंने कहा कि इसके लिये उपयुक्त कलम लेकर आता हूं। कक्ष काफी बड़ा था उन्हें चलने में बड़ी कठिनाइयां हो रही थी। मैं लपकता हुआ लगभग मेज तक पहुंच गया। मोटी सी मारकर पेन लेता तब तक वे भी पहुंच गये। उन्होंने पेन लिया और वापस आये। मैं तो साथ ही गया और साथ साथ ही आया। उन्होंने
इस पर कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। उन्होंने मुझसे कहा कि किस लिपि में हस्ताक्षर करूं देवनागरी या रोमन में ? मैंने कहा देवनागरी में। उन्होंने उस प्लास्टिक कवर पर देवनागरी में हस्ताक्षर(शंकर दयाल शर्मा) कर दिया।
हमने इसकी कल्पना तक नहीं की थी कि भारत के महामहिम राष्ट्रपति से हमें इतना प्यार एवं स्नेह मिलेगा। हम अभिभूत थे। हमने उनसे आग्रह किया था कि समय मिले तो ज्ञापन को एक बार अवश्य देख लेने की कृपा करेंगे। उन्होंने जवाब में सिर्फ सिर हिलाया था। हमने उन्हें प्रणाम किया और धीरे धीरे कक्ष से बाहर आ गये।
सांसद के वजाय जज बन जाता तो बढिया रहता-
राष्ट्रपति भवन से निकलने के बाद बाहर बहुत गर्मी थी। गाड़ी तक आते आते पसीना आने लगा था। लगता था कि हमारा रक्त चाप बढ गया था। हम खामोश थे। वार्ता के दौरान जो तथ्य हमारे सामने आये थे उससे हमें गहरा दुख पहुंचा था। हमारी आशा वार्ता के बाद निराशा में बदल चुकी थी। हमारी बुद्दी काम नहीं कर रही थी। हम खामोश अपने अपने निवास पहुंचे थे। पाइल्स से भी मुझे परेशानी हो
रही थी। नॉर्थ एवेन्यू के 22 नम्बर फ्लैट में बैठा बैठा सोच रहा था कि मैं अब क्या करुं ? सांसद बनना मेरे लिये नुकसान साबित हो रहा था। पिताजी के मृत्यु के बाद मैं क्यों लड़ा चुनाव। मायूसी हो रही थी। सिर्फ चार वर्ष सांसद बनने के लिये। इससे अच्छा मैं अपने धंधे में था। लेकिन यहां नक्कारखाने में तूती की आवाज को सुनने वाला कौन था। महामहिम राष्ट्रपति जी ने हमें स्वयं बुलाया था। क्या इसलिये बुलाया था कि सिर्फ हमें निराश कर दिया जाये। क्या यह बताने के लिये झारखंड राज्य की मांग करना एक बचकानी और गलत हरकत थी। क्या झारखंड अलग राज्य की मांग को खत्म करना इतना जरूरी था कि देश के सर्वोच्च शिखर पर बैठे व्यक्ति कोहस्तक्षेप करना पड़े ? क्या हमारा आंदोलन इतना भारी हो चला था कि झारखंड के अन्य सारे दलों की सहमति की अहमियत कम हो गई थी? क्या मात्र हमारे ही अलग राज्य के आंदोलन से सब भयभित हो गये थे? क्या लोग जानते थे कि मार्डी गुट द्वारा अलग राज्य की मांग को आगे बढाना परिषद के गठन में बहुत बड़ा बाधक बन गया था ? हमारे मन में कई विचार आ रहे थे। काफी दिनों तक दिल्ली में ही रहा।
गृह मंत्रालय से बुलावा -
12 अगस्त 1994 को एक साल तीन महीने बाद मुझे माननीय गृहमंत्री जी के पार्लियामेंट स्थित ऑफिस से फोन आया कि मुझे बुलाया गया है। झारखंड के संबंध में बातचीत करने के लिये। इस एक साल तीन महीने में बहुत सारी की घटनाएं घट चुकी थी। हमने फिर से आंदोलन को तेज कर दिया था। (पटना में पहली बार झारखंड आंदोलन की रैली - पहली बार झारखंड आंदोलन के इतिहास में पटना शहर में अलग राज्य की मांग को लेकर रैली किया था। दिन था 3 सितंबर 1993 ई.। बहुत भारी भीड़ वहां जमा हो गई थी। नेता, विधायक और कार्यकर्ता सड़क मार्ग तथा रेल गाड़ियों में लदकर पटना पहुंचे थे। बहुत से ट्रेने लेट हो गई।
रैली गांधी मैदान से स्टेशन तक, फिर स्टेशन पटना जंक्शन से हार्डिंग पार्क – विधायक निवास – इनकम टैक्स मोड़ होते हुए राज्यपाल भवन की ओर जा रही थी। राज्यपाल के निवास के सामने बैरिकेड खड़ा कर रास्ता बंद कर दिया गया था। सैकड़ो की संख्या में पुलिस बल तैनात था। भीड़ इतनी थी कि राज्यपाल निवास से इनकम टैक्स मोड़ तक खचाखच भरा हुआ था। आश्चर्य तो हुआ होगा
सभी को। क्योंकि झारखंड आंदोलन को मुर्खों, पिछड़े, दलितों, आदिवासियों के आंदोलन के रूप में मशहूर था और इसी नजर से देखा जाता रहा और प्रचारित किया जात रहा। अहमियत देने की बात तो दूर इसे घृणा की नजर से देखा जाता था।)
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल से मुलाकात -
खैर हमने उन्हें सारी बातों से अवगत कराया कि किन परिस्थितियों में और किस कारण हम पश्चिम बगांल की राजधानी कोलकाता भी पहुंचे थे। क्यों हम पश्चिम बंगाल के पुरूलिया, झाड़ग्राम, तथा मेदनीपुर जिलों को झारखंड क्षेत्र मानते हैं। झामुमो मार्डी का आंदोलन वृहत झारखंड का था और क्यों था इस पर हमने विस्तार से प्रकाश डाला था। माननीय राज्यपाल बंगाल ने हमारी बातों को ध्यान से
सुना। उन्होंने हमें चाय पिलाई और हमारा ज्ञापन लिया और कहा कि हमारे संदेश को और हमारी मांग को भारत सरकार तक पहुंचा देंगे। पश्चिम बंगाल के ये तीनों जिले हर प्रकार से दक्षिण बिहार के झारखंड क्षेत्र समान है। इन क्षेत्रो के भाषा संस्कृति एक है। इन क्षेत्रों में रहने वाली जातियां समान है। इनके पर्व त्योहार, लोक गीत, लोग संस्कृति, पूजा पाठ सभी एक सम्मान है। हम राज्यपाल भवन से
निकले तो हम खुश थे क्योंकि एक तो रैली सफल थी दूसरी राज्यपाल हमें बुलाकर हमारी बातें सुनी थी। झारखंड आंदोलन का यह दुर्भाग्य था कि झारखंडी पचास साल से अलग राज्य की मांग कर रहे थे। सभी उनकी बातें सुनते रहे थे, पर उन्हें हासिल कुछ नहीं होता था। गृहमंत्री से वार्ता 12 अगस्त 1993 को हमें माननीय गृह मंत्री भारत सरकार ने तीसरी बार बुलाया था। मैं दिन के दो बजे अकेले ठीक समय पर संसद भवन पहुंच गया था। श्री मार्डी दिल्ली में नहीं थे। अत: वे नहीं जा सके। जब मैं अंदर पुहंचा तो देखा मंत्री जी सामने बैठे थे। उनकी बाई ओर दो सेक्रेटरी एक गृह सचिव स्वयं और एक विशेष सचिव बैठे थे। मैंने उन्हें नमस्कार कर सामन रखी मेज पर बैठ गया। बिना समय गवाएं उन्होंने कहा कि अंतिम फैसला हो चुका है। अभी झारखंड क्षेत्र के विकास के लिये परिषद दिया जा रहा है। आप इस परिषद के प्रारुप को देख ले और कोई सुझाव हो तो दे दें।
मैंने उनकी बातों का यह कहकर जवाब देते हुए कहा कि सर मैं तो किसी भी प्रकार के परिषद के विरूद्द रहा हूं। और आप जानते हैं कि मैं सिर्फ अलग राज्य की मांग करते रहा हूं तो फिर मुझे क्यों बुलाया गया है ? फिर आप चाहते हैं कि परिषद के प्रारूप को देखूं और किसी विषय पर सूझाव या संशोधन का प्रस्ताव रखूं तो इसका अर्थ यही हुआ कि अप्रत्यक्ष रूप से परिषद पर समर्थन लेने में आप
सफल हो गये। इस पर खिन्न हो कर उन्होंने कहा कि अभी तो सरकार यही देगी। आपको देखना है तो ले लें। मेरी उत्सुकता तो पहले से ही बनी हुई थी कि आखिर यह किस प्रकार का परिषद दिया जा रहा है जिसकी वकालत बड़े बड़े बुद्दिजीवी और हमारे झारखंड के सभी नेता कर रहे हैं। अलग राज्य से बेहतर आखिर इस विकल्प को क्यों माना जा रहा है ?
मुझे परिषद के प्रारूप की जगह गोरखा काउंसिल की प्रति थमा दी -
मैंने सचिव से प्रस्तावित परिषद का प्रारूप मांगा। उन्होंने गृहमंत्री जी कहा कि अभी इसे अंतिम रूप नहीं दिया गया अर्थात फाइनल ड्राफ्ट तैयार नहीं हो सका है। तब मैंने कहा कि रफ ड्राफ्ट बना हो तो वही दिखा दें। मुझे इस बात पर आश्चर्य हुआ कि उनके पास रफ ड्राफ्ट की कॉपी भी नहीं थी। माननीय गृहमंत्री की ओर देखते हुए मुझे एक कॉपी दी। जब मैंने उसे देखा तो पाया कि वह गोरखा हिल
काउंसिल की एक प्रति थी। मै थोड़ी देर के लिये यह भूल गया कि मैं गृह मंत्रायल के दफ्तर में हूं तथा माननीय गृहमंत्री एस वी चव्हान मेरे सामने विराजमान हैं। सचिवों के इस हरकत से लगा कि उन्होंने मुझे ठेस पहुंचा दिया है। मेरी भावनाओं के साथ मजाक किया गया। इसका तो यही अर्थ होता है कि यह सब एक नाटक भर था। हमें बुलाने का अर्थ सिर्फ इतना था कि परिषद को देने से पहले सबको दिखला दिया गया था।सबकी राय ले ली गई थी। अचानक आक्रमक मुद्रा में मैंने सचिवो से कहा कि इस गोरखा हिल काउंसिल को मैंने बहुत पहले ही देखा है।
क्या आपलोग समझते हैं कि जो लोग झारखंड अलग राज्य की मांग को तमाम बाधाओं के बावजूद आगे बढा रहे हैं वे गोरखा हिल काउंसिल के प्रारूप भी नहीं देखा होगा? हमने राष्ट्रपति जी को भी अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी।
गृहमंत्री चव्हान को करारा जवाब -
मैंने माननीय गृहमंत्री की ओर मुखातिब होकर कहा कि सर, मुझे अपार दुख हो रहा है यह देखकर कि जिस गृहमंत्रालय का भार सरदार बल्लभ भाई पटेल जैसे नेताओं ने संभाला है और देश की एकता के लिये बड़े बड़े निर्णय लिए गये। देशी रियासतों को एक एक करके प्रजातंत्र में शामिल किया गया। उस मंत्रालय में अपने ही देश के आदिवासी-दलितों के नेताओं के साथ मजाक किया जा रहा है। यह गृह मंत्रालय तो ऐसा प्रतीत हो रहा है कि एक खिलौने की दुकान बन गया है। पांच वर्ष के बच्चे को झूनझूना पकड़ा दिया गया। उससे छोटा आया तो मुंह में चुसनी लगा दी। उस बड़ा आया 10-15 साल का तो उसे लकड़ी की बन्दूक पकड़ा दी। उन्हें बहला दिया। फूसला दिया। सर मैं बच्चा नहीं हूं। मुझे दुख है कि आपने हमारा मखौल उड़ाया। कहते कहते मैं उत्तेजित हो गया था। फिर शांत हो गया और गृहमंत्री जी से माफी भी मांग ली थी।
झारखंडी नेता हंस रहे थे अपने ही लोगों पर –
गृहमंत्री से बातचीत के बाद जब हम बाहर निकले तो देखा कि सूरज मंडल(सांसद) और डा. राम दयाल मुंडा सहित कई झारखंडी नेता बाहर खड़े हंस रहे थे। उन्होंने मुझसे कहा कि बात हो गई ? सुझाव दे दिये ? मैंने उनकी बात का कोई जवाब नहीं दिया और संसद भवन से बाहर आ गया। और अपनी गाड़ी की ओर चल दिया। ‘झारखंड स्वायतशासी परिषद’ का अधिनियम बिहार विधान सभा से पारित -
बहरहाल, इसके बाद भी हमने कई बड़े बड़े कार्यक्रम अलग झारखंड राज्य की मांग को आगे बढाने के लिये किये। पर अंतत: 24 दिसंबर 1994 को ‘झारखंड स्वायतशासी परिषद’ का अधिनियम बिहार विधान सभा से पारित हो गया। हम वहां मौजूद थे। गैलरी में बैठे मैं तथा कृष्णा मार्डी देख रहे थे कि सूरज मंडल, सुधीर महतो और शिबू सोरेन आदि नेता भी वहीं थे। सूरज मंडल मेरे पास आये। उस वक्त सूरज मंडल बिहार के छाया मुख्यमंत्री माने जाते थे। झामुमो सोरेन के सबसे चर्चित नेता थे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या हमारे इस परिषद की प्रति है? मैं चकित था कि जिस परिषद को प्राप्त करने के लिये शिबू सोरेन और सूरज मंडल ने अलग राज्य की मांग को छोड़ा था, उस परिषद का प्रारूप भी उन्हें नहीं मालूम था। (समाप्त)