अन्याय के खिलाफ न्याय के प्रतीक हैं क्रांतिकारी योद्धा दिशोम गुरू।

Date: 13/01/2021

- राजेश कुमार

बात 70 दशक की है। धनबाद जिले के सरायढेला स्थित काली मंदिर परिसर में बड़ी संख्या में स्थानीय लोग जुटे थे। उनके हाथों में तीर-धनुष, फरसा व कुल्हाड़ी आदि पारंपरिक हथियार थे। बिनोद बिहारी महतो और शिबू सोरेन जिंदाबाद के नारों से पूरा वातावरण गूंज रहा था। ये नारे बेहद आक्रमक थे। नारों और ढोल-नगाड़ों की आवाज से किसी अनहोनी का डर था। बाहरी लोग ( झारखंड क्षेत्र के बाहर से आने वाले लोग) सहमे हुए थे। विनोद बिहारी महतो क्रांतिकारी विचारक थे तो शिबू सोरेन (गुरूजी) क्रांतिकारी योद्धा। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि किसी भी आम जनता को डरने की जरूरत नहीं है यह रैली उनलोगों के लिये एक चेतावनी है जो गांवों में शोषण करते हैं, बहु-बेटियों की इज्जत से खिलावाड़ करते हैं। जमीनें हड़प लेते हैं। यह अन्याय के खिलाफ न्याय की आवाज है।

- पिता की हत्या और कठिन परिस्थितियों में बचपन

अन्याय के खिलाफ झामुमो अध्यक्ष शिबू सोरेन के पिता शोबरन सोरेन भी आवाज बुलंद करते रहे। पेशे से शिक्षक उनके पिता लोगों को समझातें थे कि सही क्या है और गलत क्या है? वे समाजसेवा के तहत लोगों को जागरूक करते और बताते कि महाजन के चंगुल से कैसे बचा जाये। वे ताकतवर लोगों के आंखों में खटक रहे थे। 27 नवंबर 1957 को उनकी हत्या कर दी गई। 11 जनवरी 1944 को जन्मे दिशोम गुरू शिबू सोरेन की उम्र आज  77 साल की है लेकिन जब उनके पिता की हत्या हुई थी तब उनकी उम्र तब सिर्फ तेरह साल थी। पिता का साया उठ चुका था। मां सोनामणि ने हिम्मत नहीं हारी और हर संकट का सामना करते हुए अदालत के चक्कर लगाये और बच्चों की देखभाल की। बचपन की कठिन परिस्थियों ने उन्हें दृढ बना दिया।

 -  धनकटनी आंदोलन व दिशोम गुरू 

धनकटनी आंदोलन झारखंड क्रांति का प्रतीक बन चुका था। इस आंदोलन से सिर्फ सूदखोर और जमींदार हीं नहीं बल्कि पुलिस-प्रशासन भी सकते में आ गये थे। गरीबों पर हो रहे अत्याचार की केस धड़ाधड़ लिखे जाने लगे और समास्याओं का निदान शुरू किया गया। इस आंदोलन का प्रभाव पूरे राज्य में था लेकिन सबसे ज्यादा प्रभाव धनबाद, गिरिडीह, हजारीबाग, रामगढ और बोकारो क्षेत्र में था।   उस दौरान आजादी से पूर्व के राजा, जमींदार व महाजनों  ने धोखे से  आदिवासी समुदाय की जमीनों पर कब्जा कर रखा था। इसके खिलाफ शिबू सोरेन ने आदिवासी समुदाय में जागरूकता फैलाई और उन्हें एक मंच पर लाया। इस लड़ाई में महिला-पुरूष सभी साथ आये। खेतों में लगे फसलों की कटाई होने लगी और फसल जमींदारों के यहां पहुंचाने की वजाय अपने अपने घर ले जाने लगे। क्योंकि यह जमीन उनकी हीं थी।  ताकत के दम पर खेत से धान की फसल काटने लगे। महिलाएं धान काटती और पुरूष तीर-धनुष लेकर उनकी रक्षा करते। और हर जुल्म का जवाब उन्हीं की भाषा में देने को ठाना। वे एक तरह से मार्गदर्शक बन गये। स्थानीय लोगों ने उन्हें दसों दिशाओं का गुरू अर्थात दिशोम गुरू का दर्जा दिया। 

- सीधी लड़ाई, अलग राज्य की मांग और झामुमो की स्थापना 

बाहर से आकर बसे वे लोग जो जुल्म करते थे उनपर सीधी कार्रवाई की गई। क्योंकि स्थानीय पुलिस आम तौर पर आदिवासी समुदाय की फरियादें भी नहीं सुनती थी। लोगों के में भारी आक्रोश था।  कई ऐसी घटनाएँ सामने आई जिसमें पुलिस के लोग हीं शामिल थे। सीधे-साधे व गरीब आदिवासी समुदाय के लिये अदालती लड़ाई संभव नहीं था। आदिवासी समुदाय के लोग कहने लगे कि हमने अंग्रेजों को यहां से मार भगाया है। हमारे साथ अन्याय मत करो। दिशोम गुरू के नेतत्व  में  अलग राज्य की मांग को गति दी गई। जोरदार आंदोलन शुरू हुए। हिंसक घटनाएं घटने लगी। कई बार पुलिस वारंट जारी हुए। उन्हें षडयंत्र के तहत फंसाने का काम किया गया। कई मौके पर पुलिस ने हिरासत में लिया। लोग उनसे जुड़ते गये। और आखिरकार फैसला हुआ के अलग राज्य के लिये राजनीतिक लड़ाई बहुत जरूरी है। फिर झारखंड के भीष्मपितामाह कहे जाने वाले विनोद बिहारी महतो के साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन किया गया 4 फरवरी 1972 को। बिनोद बिहार महतो प्रथम अध्यक्ष बने और शिबू सोरेन प्रथम महासचिव। इनके अलावा झामुमो के गठन में कॉमरेड ए के रॉय का भी योगदान था। इनके बढती ताकत को देख इनके बीच राजनीतिक फूट डाली गई।  

- ऐसा समय जब कोई लीडर साथ नहीं था 

 झामुमो के अध्यक्ष हैं दिशोम गुरू शिबू सोरेन। वे अलग झारखंड राज्य बनवाने में सफल रहे। तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री भी बने। जब भी वे मुख्यमंत्री बने राज्य राजनीतिक अस्थिरता का दौर जारी था।  उनका राजनीतिक सफर चुनौतियों से भरा रहा। आज भी वे अपने बेटे और झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन को सलाह देते रहते हैं कि कभी भी आम जनता के मुद्दों से दूर मत रहना और उसके समाधान के लिये तत्पर रहना। दूसरे व सबसे छोटे बेटे बंसत सोरेन भी विधायक हैं। वे भी काफी कम उम्र से काफी कठिनाईयों को देखते आये और पिता के मुश्किल घड़ी मे सदैव साथ रहे।  बे और उनकी माता जी रूपी सोरेन ने परिवार को भी संभालने की कोशिश की। दिल्ली में राजनीतिक गतिविधियों को संभालने में अहम योगदान दिया। एक समय ऐसा आया कि जब दिशोम गुरू के सबसे नजदीकी नेताओं ने साथ छोड़ दिया था। सभी लोग आना-जाना बंद कर दिये थे।  दिशोम गुरू को सबसे बड़ा पारिवारिक झटका लगा 21 मई 2009 को। इस दिन उनके बड़े पुत्र दुर्गा सोरेन का निधन हो गया था किडनी फेल होने की वजह से।    

बहरहाल जानते हैं उनके राजनीतिक सफर के बारे में - 

- झाममो लीडर शिबू सोरोन का जन्म हजारीबाग जिले में नामरा गाँव में हुआ ।

- साल 4 फरवरी 1972 झारखंड मुक्ति मोर्चा का गठन। संस्थापक महासचिव बने। वर्तमान में अध्यक्ष हैं।

- 1975 में चिरूडीह में बाहरी लोगों को बाहर निकालने के लिये चलाई गई मुहिम में 11 लोगों की मौत हो गई। इसको लेकर उनके खिलाफ केस चला और वे अंतत: बरी हो गये।

- 25 जून 1975 को जब इमरजेंसी लगी तो उन्हें धनबाद के जेल में रखा गया। 

- 1977 में पहली बार लोकसभा चुनाव लड़े और हार गये। लेकिन इसके बाद उनका राजनीतिक ग्राफ लगातार बढता ही गया। 

- 1980 में वे लोकसभा चुनाव जीते। इसके बाद वे 1986, 1989, 1991, 1996 में लोकसभा चुनाव जीते। 

- वे 10 अप्रैल 2002 से जून 2002 तक राज्य सभा के सदस्य भी रहे। उन्होंने राज्यसभा से इस्तीफ दे दिया और फिर चुनाव लड़कर लोकसभा पहुंचने का फैसला किया। 

- साल 2004 में फिर दुमका संसदीय सीट से चुनाव जीत गये। 

- साल 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में कोयला मंत्री बने लेकिन चिरूडीह कांड में वारंट जारी होने की वजह से उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 

- बिहार से अलग झारखंड राज्य के गठन के बाद वे तीन बार मु्ख्यमंत्री बने । ( 1.  5 मार्च 2005 - 12 मार्च 2005 ;  2. 28 अगस्त 2008 - 18 जनवरी 2009 ; 3.  30 दिसंबर 2009 - 31 मई 2010)

बहरहाल, 11 जनवरी को दिशोम गुरू शिबू सोरोन का 77वां जन्म दिन मनाया गया। दोनो पुत्र मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और विधायक बसंत सोरेन  ने पिताजी को बधाई दी और उनसे आशीर्वाद प्राप्त किये। परिवार के तमम सदस्यों ने बधाई दी।  

 



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