क्यों मात खा गए उद्धव ठाकरे भाजपा एकमात्र कारण नहीं हो सकती - वरिष्ठ पत्रकार उपेन्द्र प्रसाद।

Date: 13/07/2022

आखिरकार उद्धव ठाकरे मात खा ही गए। उनसे मुख्यमंत्री पद छिन चुका है। पार्टी भी छिन जाने का खतरा मंडरा रहा है। जो शिवसैनिक विधायक ठाकरे के साथ रह गए हैं, उनकी विधानसभा सदस्यता पर भी खतरा मंडरा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि एकनाथ शिंदे ने पार्टी में विभाजन का दावा नहीं किया है, बल्कि वह खुद अपनी शिवसेना को असली शिवसेना मानते हैं। विधायकों का लगभग तीन-चौथाई उनके साथ है। सांसदों में अभी अंतिम मुंडगणना नहीं हुई है, लेकिन एक बार महाराष्ट्र की सत्ता में आरामदायक तरीके से एकनाथ शिंदे के स्थापित हो जाने के बाद अनुमान लगाया जा सकता है कि सांसदों का भारी बहुमत भी उद्धव का साथ छोड़ देगा।

आखिर गलती कहां हुई? यह सच है कि भारतीय जनता पार्टी ने शिवसेना के इस संकट में निर्णायक भूमिका निभाई, लेकिन इसे एकमात्र कारण बताना गलत होगा। यदि भाजपा वैसा करने में इतना सक्षम रहती, तो यह काम बहुत पहले वह कर सकती थी। उद्धव ठाकरे को ढाई साल तक शासन में रहने का समय नहीं मिलता। लिहाजा, यह कहा जा सकता है कि पार्टी के विधायकों में भारी असंतोष उद्धव राज के दौरान ही पैदा हुआ।

विधायक ही नहीं, मंत्रिपद पर बैठे शिवसैनिक भी उद्धव से नाराज हुए। विधायकों का असंतोष तो समझ में आ सकती है कि वे मंत्री बनने के लिए परेशान थे, लेकिन मंत्रियों को किस चीज की परेशानी थी? तो इसका जवाब यही हो सकता है कि आजकल सत्ता का केन्द्रीकरण हो गया है। राज्य सरकार की सारी ताकतें मुख्यमंत्री में निहित हो गई हैं और मंत्रालयों के बड़े फैसले भी मुख्यमंत्री की सहमति से ही होते हैं। सच कहा जाय, तो सभी मंत्रालयों में मुख्यमंत्री की ही तूती बोलती है। गठबंधन राजनीति की विवशता के कारण सहयोगी दलों के मंत्रालयों में शायद मुख्यमंत्री की ओर से ज्यादा हस्तक्षेप नहीं होते, लेकिन अपनी पार्टी के मंत्रियों के मंत्रालय तो एक तरह से मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाला मंत्रालय ही साबित होता है।

उद्धव ठाकरे के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व एकनाथ शिंदे ने किया, जो खुद भी उद्धव सरकार में मंत्री थे। वे विधानसभा में पार्टी के विधायक दल के नेता भी थे। विधानसभा में सत्तारूढ़ दल के विधायकों का नेता आमतौर पर मुख्यमंत्री ही होता है, लेकिन नेता होने के लिए विधानसभा का सदस्य भी होना चाहिए। उद्धव ठाकरे विधानसभा के सदस्य नहीं थे, इसलिए वे अपनी पार्टी के विधानसभा में नेता भी नहीं हो सकते थे। लिहाजा, उन्होंने एकनाथ शिंदे का विधायक दल का नेता बना रखा था। उनके पास कुछ महत्वपूर्ण मंत्रालय भी थे।

इसके बावजूद एकनाथ शिंदे का विद्रोह करना मात्र मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा नहीं हो सकती। अन्य कारणों से भी वह असंतुष्ट रहे होंगे। अपने मंत्रालय मे उन्हें फ्रीहैंड नहीं मिला हुआ था। शिवसेना के अन्य मंत्रियों को कितना फी्रहैंड मिला होगा, इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। जब किसी मंत्रालय में मुख्यमंत्री का हस्तक्षेप होता है, तब भी मंत्री को खराब लगता है, लेकिन उससे मंत्री अपमानित महसूस नहीं करते, क्योंकि मुख्यमंत्री ही नेता होता है औेर उनकी कृपा के कारण ही मंत्री अपने पद पर होता है।

लेकिन महाराष्ट्र की उद्धव सरकार के दौरान आदित्य ठाकरे का हस्तक्षेप भी मंत्रियों के काम काज में हो रहा था। इसके कारण भी मंत्री नाराज थे। आदित्य ठाकरे राजनीति में बहुत जूनियर हैं और एकनाथ शिंदे जैसे शिवसैनिकों के सामने तो वे महज बच्चे हैं। उनका महत्व सिर्फ इसलिए है कि वे उद्धव ठाकरे के बेटे और बाल ठाकरे के पोते हैं। लेकिन उनकी राजनैतिक अपरिपक्ता और हस्तक्षेप के कारण भी मंत्री नाराज थे। विधायकों की नाराजगी का कारण यह था कि न तो आदित्य ठाकरे और न ही उद्धव ठाकरे उनके लिए हमेशा उपलब्ध रहते थे। लेकिन एकनाथ शिंदे सबके लिए उपलब्ध थे।

विधायकों को अपने क्षेत्र और पार्टी के लोगों के लिए काम करना और करवाना पड़ता है। काम करवाना सिर्फ इसलिए जरूरी नहीं होता कि उन्हें अपने समर्थकों के लगातार समर्थन की जरूरत पड़ती रहती है। बल्कि इसलिए भी जरूरी होता है, ताकि उनके समर्थकों को यह अहसास होता रहे कि उनका विधायक या मंत्री वास्तव में ताकतवर है। अब अगर विधायक या मंत्री अपने समर्थकों का बहुत वाजिब काम भी नहीं करवा सकेगा, तो उनकी प्रतिष्ठा क्या रह जाएगी। यह तो बहुत ही अपमानजनक होगा। जाहिर है शिवसेना के विधायक-मंत्री अपमान के इसी दौर से गुजर रहे थे।

उद्धव ठाकरे को अपना पुत्र प्रेम महंगा पड़ा। सबसे पहले तो वे अपने पुत्र आदित्य ठाकरे को ही मुख्यमंत्री बनाना चाहते थे। शरद पवार जैसे सहयोगी नेताओं द्वारा वीटो लगाने के बाद आदित्य को मुख्यमंत्री बनाने की अपनी इच्छा का त्याग कर दिया। वे खुद मुख्यमंत्री बन गए, लेकिन अपने बेटे आदित्य को भी मंत्री बना डाला।

बाल ठाकरे का सम्मान इसलिए भी होता था कि वे कोई सरकारी पद नहीं लेते थे। वे विधानसभा और लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ते थे। शिवसेना की सरकार बनी थी, तो मनोहर जोशी की जगह बाला साहेब चाहते तो खुद भी मुख्यमंत्री बन सकते थे, लेकिन वे मुख्यमंत्री नहीं बने। लेकिन उनके बेटे उद्धव ठाकरे खुद भी मुख्यमंत्री बने और अपने बेटे को भी मंत्री बना डाला। जाहिर है, वे बाला साहब की तरह सम्मान पाने का हक खो चुके थे। और एक बार जब कोई व्यक्ति स्वाभाविक हक खो देता है, तो उसकी वही दुर्गति होती है, जो उद्धव ठाकरे की हुई।

भारतीय जनता पार्टी की भूमिका निःसंदेह इन सारे मामले मे निर्णायक रही है। यह पूरा खोल ही भाजपा का है, लेकिन खिलाड़ी खेल के लिए खुद तैयार था। भाजपा ने सिर्फ उसका फायदा उठाया। उद्धव ठाकरे से शिवसैनिक विधायकों को तोड़ना आसान नहीं था, इसलिए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री का पद आॅफर किया गया। यह काम बहुत पहले हुआ होगा, लेकिन लगता है कि देवेन्द्र फडणविस को इसकी जानकारी नहीं थी। लेकिन शिवसैनिक विधायकों को इसकी जानकारी जरूर रही होगी, क्योंकि उद्धव से विद्रोह वे तभी कर सकते थे, जब वह आश्वस्त हो जाते कि उद्धव पूरी तरह कमजोर हो जाएंगे और उद्धव को शिवसेना के अंदर भी कमजोर करने के लिए एकनाथ शिंदे को मुख्यमंत्री बनाना जरूरी था। इसलिए भारतीय जनता पार्टी ने शिंदे को मुख्यमंत्री बनाते समय यह भी भुला दिया कि पिछली विधानसभा चुनाव के बाद अपना मुख्यमंत्री बनाने की अपनी जिद के कारण ही उद्धव ठाकरे कांग्रेस और पवार के खेमे में चले गए और भाजपा को विपक्ष में बैठना पड़ा। दरअसल भाजपा चाहती है कि उद्धव ठाकरे राजनैतिक रूप से अप्रासंगिक हो जाएं और उसके बाद भाजपा के सामने महाराष्ट्र में उसी तरह कोई चुनौती नहीं रह जाएगी, जिस तरह उत्तर प्रदेश में उसके सामने कोई राजनैतिक चुनौती नहीं है।

 नोट  - (लेखक उपेन्द्र प्रसाद, वरिष्ठ पत्रकार, नवभारत टाइम्स के पूर्व रेजिडेंट संपादक, राजनीतिक, आर्थिक व सामाजिक विशेषज्ञ। लेखक के निजी विचार हैं।)

 



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