पत्रकारिता के एक युग का अंत। सत्य, सादगी और ईमानदारी के प्रतीक वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडे इस दुनिया को अलविदा कह गये।

Date: 20/01/2023

- राजेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

भारतीय पत्रकारिता को समृद्ध व मजबूत बनाने वाले वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय जी (गुरूजी)  इस दुनिया को अलविदा कह गये। पत्रकारिता जगत के वे एक बेंच मार्क थे। हिन्दी जगत के प्रतिष्ठित अखबार दैनिक हिन्दुस्तान में निर्णायक पदों पर रहे। 9 सालों तक संपादकीय पेज के प्रभारी रहे। महान लेखक व विचारक थे। गांधीजी व राममनोहर लोहिया जी से प्रभावित थे। राजनीतिक और सामाजिक विषयों के अलावा धर्म और साहित्य समेत कई विषयों पर जबरदस्त पकड़ थी। उनकी लेखनी  देश व समाज को सकारात्मक राह दिखाते रही। लेखनी पर जबरदस्त चर्चा होती थी  पत्रकार, राजनीतिज्ञ, छात्र और आम लोगों के बीच। बीते 90 के दशक में प्रिंट मीडिया का अपना जबरदस्त महत्व था।  वरिष्ठ पत्रकार पांडे जी की शख्सियत को लेकर जितना लिखा पढा जाये उतना कम होगा। आईये जानते हैं कि वे सिर्फ पत्रकारिता हीं नहीं बल्कि देश व समाज के लिये एक मजबूत स्तंभ का कार्य करते रहे। 

अपने आप में एक संस्था थे : - 

वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय जी सिर्फ एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि वे अपने आप में एक संस्था थे। इन्होंने पत्रकारिता जगत को समृद्ध बनाने के लिये उल्लेखनीय कार्य किया। यदि ऐतिहासिक कहा जाये तो गलत नहीं होगा। जब इनके पास संपादकीय पेज का प्रभार आया तो इन्होंने परंपरा से हटकर एक नया प्रयोग किया, जिसमें युवा फ्रीलांस पत्रकारों को जगह दी गई। संपादकीय पेज पर संपादकीय लेखन के अलावा तीन लेख प्रकाशित किये जाते थे। लेखक पहले से तय होते थे लेकिन इन्होंने तीसरा लेख युवाओं के लिये रखा। दर्जनों नये लेखकों को जगह दी। और इस बात का हमेशा ख्याल रखा कि इसमें समाज के पिछड़े, दलित-आदिवासी व अल्पसंख्यक समुदायों से संबंधित पत्रकारों को भी जगह दी जाये। और बड़ी संख्या में उन्होंने जगह दी। 

पत्रकारिता और राजनीति : - 

पूरी तरह प्रिंट मीडिया का दौर था। साथ हीं एक संपादक के लिये उन दिनों भी  प्रधानमंत्री , मंत्री-गण और विपक्ष के नेताओं के साथ मिलना-जुलना बहुत बड़ी बात नहीं थी। कई पत्रकार अपनी गाड़ियों में वीआईपी लाइट लगा कर चला करते थे। लेकिन वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय जी, जो दैनिक हिन्दुस्तान में संपादक के बाद दूसरा स्थान रखते थे, इन सबसे काफी दूर थे। 9 साल तक संपादकीय पेज के प्रभारी रहने के बावजूद उन्होंने ईमानदारी और सादगी को अपना गहना बनाया। बस से हीं आया-जाया करते थे।   

अखबारों में छपने वाले हर शब्द का अपना महत्व होता है और आज भी है। वे संपादकीय पेज के प्रभारी थे। उनके पास उन दिनों, पक्ष-विपक्ष के बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों के फोन भी आया करते थे। मिलने-जुलने या किसी पार्टी में शामिल होने के लिये आमतंत्रित किये जाते थे, लेकिन वे कभी नहीं गये। अपवाद हो तो मुझे नहीं मालूम। बावजूद सभी उनका विनम्रता के साथ आदर किया करते थे। एक बार मैंने उनसे पूछा कि आप किसी राजनीतिज्ञ के यहां क्यों नहीं जाते? जबकि संपादक और रिपोर्टर तो जाते रहते हैं?  उनका जवाब था कि रिपोर्टर का आना-जाना स्वभाविक है। वे एक साथ प्रेस-कांफ्रेस में रहते हैं और उन्हें खबरों पर कार्य करने होते हैं, तो स्वाभाविक है उनका आना जाना। जहां तक मुख्य संपादक की बात है तो वे पत्रकारिता के साथ साथ प्रबंधन का भी हिस्सा होते हैं। दोनों हीं क्षेत्रों में उन्हें संतुलन कायम करना होता है। मेरा क्षेत्र विचार का है। संपादकीय है। खबरों के वास्तविक अर्थ को जनता के सामने रखना है। कहीं गलत लगे तो सरकार को सकारात्मक राह भी दिखाना है। सभी पत्रकारों के विचार अलग-अलग होते हैं। मेरे विचार अपने हैं। मेरा मानना है कि यदि अधिक संपर्क बढाने या मेलजोल करने से आप आम जनता और खबरों के साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पायेंगे। मैं सदैव दोनो पक्षों को देखता हूं।  

राजनीति और सामाजिक मार्गदर्शक : - 

दोनो हीं क्षेत्रों में हर व्यक्ति के विचार समान नहीं हो सकते। इस विषय से बचना भी मुश्किल है खासकर पत्रकारिता के क्षेत्र में। राजनीतिक व सामाजिक लड़ाई का सबसे बड़ा उदाहरण है मंडल-कमंडल का दौर। इस दौर में लगभग समाज दो भागों में विभाजित हो चुका था। जातीय हिंसा और तनाव अपने चरम स्तर तक पहुंच गया। क्या सही है और क्या गलत इससे किसी को कुछ भी लेना देना नहीं था। एक पक्ष मंडल आयोग के पक्ष में था तो दूसरा पक्ष विरोध में।  तनाव का अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि लोग जातीय प्रतीक मानकर गांधीजी और नेहरूजी के मूर्तियां तक तोड़ने लगे। अखबारों के पन्ने मंडल विरोध से भरे होते थे। मंडल पक्ष की एक-दो खबरे छोटे कॉलम छाप दिये जाते। पत्रकारिता में पिछड़े वर्ग की संख्या नहीं के बराबर थी।  मंडल-कमंडल को लेकर संपादकों की बैठकों में नैतिकता पर काफी बहस होती थी लेकिन फाइनल परिणाम मंडल विरोध पर आ टिकता था। ऐसे में  संपादकीय लिखने के मामले में कृष्ण किशोर पांडेय जी ने सभी के साथ न्याय करने का फैसला किया। और सामाजिक न्याय के पक्ष में संपादकीय लिखने और उनसे संबंधित आये लेखों को भी प्रकाशित करते रहे। कई बार उनकी आलोचना की गई। लेकिन उनके तर्क के सामने सभी चुप हो जाते।    

उन दिनों मंडल हीरो के रूप में प्रधानमंत्री वी पी सिंह के अलावा जनता दल लीडर शरद यादव, मुलायम सिंह, राम विलास पासवान और लालू यादव का नाम सुर्खियों में था। अगड़े वर्ग के लोग बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू यादव से काफी नाराज थे, भले हीं वे पत्रकार हीं क्यों न हो। नाराज इस कदर कि उनके नाम को तोड़-मरोड कर उच्चारण किया करते थे। उनकी सोच उनकी लेखनी में भी दिख जाती थी।  ऐसे में उन्होंने फ्रीलांस पत्रकारों से कहा कि आपकी निजी सोच अपनी जगह है लेकिन  लेखनी में मर्यादीत शब्दों का हीं प्रयोग होना चाहिये।

बहरहाल, बात हो रही थी मंडल-कंमडल की। यानी सीधे-सीधे कहें तो अगड़ी जाति और पिछड़ी जाति के बीच तनाव, एक गंभीर मुद्दा बन चुका था। लेकिन बतौर वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय जी ने सभी से पूछा कि आखिर मुख्यमंत्री लालू यादव का विरोध क्यों? सभी लोगों के अपने-अपने तर्क थे। किसी ने कहा कि बिहार में अगड़ी जातियों की हत्या हो रही है। तो किसी ने कहा कि टेलेंट को वरियता देनी चाहिये न कि आरक्षण को। इस पर वरिष्ठ पत्रकार पांडे जी का उत्तर था कि क्या पिछड़ी जाति के लोगों की हत्या नहीं हुई? क्या लालू यादव के सत्ता में आने से पहले अगड़े वर्ग की हत्या नहीं हुई? दर्जनों हत्याएं हुई हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि लालू कार्यकाल में जो हत्याएं हो रही हैं उसका मैं समर्थन कर रहा हूं। मैं सिर्फ इतना कह रहा हूं कि पिछड़ों में राजनीतिक चेतना जाग चुकी है। वे राजनीतिक करवटे ले रहे है। हम लोकतांत्रिक व्यवस्था में हैं। देश की आधी आबादी पिछड़े वर्ग की है जिसे राजनीति की मुख्य धारा से दूर रखा गया। अब वे राजनीतिक नेतृत्व के लिये आतुर हैं। इसे स्वीकार कर लेना चाहिये। आज नहीं तो कल स्वीकार करना हीं होगा। 

बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण बाबू की बात छोड़ दीजिये। उनके कार्यकाल में जो विकास हुआ वह ऐतिहासिक है। उनके अलावा  न तो किसी अन्य मुख्यमंत्री के कार्यकाल में विकास हुआ और न हीं सामाजिक न्याय की कोशिश हुई।   समीक्षा हो तो सभी मुख्यंत्रियों के कार्यकाल की भी हो। ओबीसी आरक्षण को लेकर उनका मत था कि जिन गरीब कृषक जातियों (ओबीसी) को कभी पढने नहीं दिया गया। उनसे आप प्रतियोगी परीक्षा की बात कर रहे हैं। आजादी के बाद इतने साल हो गये सरकार ने ओबीसी शिक्षा के लिये क्या किया? आरक्षण की बात तभी उठती है जब सरकार और समाज न्याय नहीं कर पाती। इस पर उन्होंने बहुत विस्तार से अपनी बात रखी फिर कभी अगले लेख में। कहने का अर्थ यह है कि वे हर हाल में सामाजिक और धार्मिक समानता के पक्षधर थे। 

धर्म और गरीबों के प्रति दया भाव : - 

वे ईश्वर पर पूरा विश्वास करते थे। प्रत्येक शनिवार को ऑफिस का कार्य समाप्त कर दिल्ली के कनॉट प्लेस स्थित हनुमान मंदिर जाते और ईश्वर की प्रार्थना करते थे। धार्मिक समानता के  पक्षधर थे। सिर्फ राजनीतिक, सामाजिक और विदेश मामलों के हीं जानकार नहीं थे बल्कि सनातन धर्म से जुड़े ग्रंथों ( वेद, रामायण, महाभारत, उपनिषद आदि) के ज्ञानी थे। इतना हीं नहीं अन्य धर्मों के ग्रंथों का भी गहन अध्ययन था।  साथ हीं गरीबों के प्रति दया भाव भी रखते थे। जरूरतमंदो की क्षमतानुसार मदद भी किया करते थे।   

ईमानदारी, सत्य और सादगी के प्रतीक : 

वरिष्ठ पत्रकार कृष्ण किशोर पांडेय जी कोई साधारण व्यक्ति नहीं थे। वे दैनिक हिन्दुस्तान के संपादक के बाद दूसरा स्थान रखते थे। संपादकीय पेज के प्रभारी थे। बावजूद उनका जीवन सादगी भरा था। सत्य, सादगी और ईमानदारी के प्रतीक थे। कभी किसी को झूठे आश्ववासन तक नहीं देते थे। जो वेतन मिलता था उसी से जीवन गुजारा करते थे। कहीं भी आना जाना हो तो वे बस से ही आया जाया करते थे। बहुत जरूरत हुआ तो ऑटो कर लिये। उन्हें कई लोगों ने कई प्रकार के प्रलोभन दिये लेकिन वे ईमानदारी के पथ से कभी डिगे नहीं।  उनकी ईमानदारी सभी क्षेत्रों में था चाहे आर्थिक मामला हो या लेखन का।  

बहरहाल, भारतीय पत्रकारिता के मजबूत स्तंभ रहे कृष्ण किशोर पांडेय जी का 12 जनवरी को निधन हो गया । वे 80 वर्ष के थे। तबियत खराब थी। उन्हें पटना के आईजीएमएस में दाखिल कराया गया था। डॉक्टर्स के निगरानी में थे लेकिन ह्रदय गति रूक जाने की वजह से वे इस दुनिया को अलविदा कह गये। उनका अंतिम संस्कार गंडक नदी किनारे रेवाघाट पर किया गया। बड़े पुत्र अजय पांडेय ने मुखाग्नि दी। वे अपने पीछे पत्नी के अलावा तीन पुत्र, पुत्र वधु, तीन पौत्र, एक पुत्री दामाद और एक नाती सहित भरापूरा परिवार छोड गये हैं। उन्होंने अपनी पत्रकारिता की शुरूआत साल 1968 में शुरू की और एसोसिएट संपादक पद से रिटायर हुए। इस बीच उन्होंने कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया। 9 साल तक लगातार संपादकीय पेज के प्रभारी रहे। पत्रकारिता के क्षेत्र में यह बहुत बड़ी उपलब्धी है। उन दिनों इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपनी शुरूआती दौर में था और मीडिया जगत में प्रिंट मीडिया का बोलबाला था। क्या लिखा-पढा जा रहा है इसका राजनीतिक और सामाजिक मूल्य था। 

 

 



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